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जैनदर्शन
संसार का सम्बन्ध कर्मसम्बन्ध के अधीन है और कर्म का सम्बन्ध राग-द्वेष मोह की चिकनाहट के अधीन है । जो पूर्ण निर्मल हुए हैं, जो कर्म के लेप से सर्वथा रहित हो गए हैं उनमें राग-द्वेष की चिकनाहट हो ही कैसे ? और इसीलिये उनके साथ कर्म के पुनः सम्बन्ध की कल्पना भी कैसी ? अतएव संचारचक्र में उनका पुनः अवतरण असम्भव है ।
सब कर्मों का क्षय हो सकता है ।
यहाँ पर एक ऐसा प्रश्न होता है कि 'आत्मा के साथ कर्म का संयोग जब अनादि हैं तब अनादि कर्म का नाश कैसे हो सकता है ?, क्योंकि ऐसा नियम है कि अनादि वस्तु का नाश नहीं होता । इस प्रश्न के समाधान में यह समझने का है कि आत्मा के साथ नएँ नएँ कर्म बँधते जाते हैं और पुराने झडते जाते हैं । इस स्थिति में कोई भी कर्मपुद्गल - आत्मा के साथ अनादिकाल से संयुक्त नहीं है, किन्तु भिन्न-भिन्न कर्मों के संयोग का प्रवाह अनादिकाल से बहता आया है । यद्यपि सदैव संसारी आत्मा के साथ भिन्नभिन्न कर्म-पुद्गलों का संयोग सतत होता रहता है, अतएव कर्मबन्ध का प्रवाह अनादि है, फिर भी प्रत्येक कर्म पुद्गल - व्यक्ति का संयोग आदिमान् है । कर्म बँधा, अतः वह कर्मबन्ध सादि हुआ और सादि हुआ इसलिये वह कर्म कभी न कभी जीव पर से दूर तो होने का ही । अतएव व्यक्तिरूप से कोई भी कर्मपुद्गल आत्मा के साथ शाश्वतरूप से संयुक्त नहीं रहता । तो फिर शुक्लध्यान के पूर्ण बल से नए कर्मों का बन्ध रूक जाने के साथ ही पुराने कर्म यदि झड़ जायँ तो क्या यह शक्य नहीं है ? इस प्रकार सब कर्मों का सम्पूर्ण क्षय हो सकती है । - आत्मा कर्म - रहित हो सकती है ।
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इसके अतिरिक्त संसार के मनुष्यों की ओर दृष्टिक्षेप करने पर ज्ञात होता है कि किसी मनुष्य में राग-द्वेष की मात्रा अधिक होती है तो किसी में कम । इतना ही नहीं एक ही मनुष्य में भी रागद्वेष का उपचय - अपचय होता है । तब, यह तो सहजरूप से समझा जा सकता है कि राग-द्वेष की इस प्रकार की कमी - बेशी विना कारण सम्भव नहीं । इस पर से ऐसा माना जा सकता है कि कमी-बेशी वाली वस्तु जिस हेतु से घटती है उस हेतु का यदि पूर्ण बल मिले तो उसका सर्वथा नाश ही हो। जिस प्रकार पोष महीने की प्रबल
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