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प्रथम खण्ड
प्रकार का भेदभाव नहीं रहता और एकरूप से उनका व्यवहार होता है, उसी प्रकार प्रकृत में भी भिन्न-भिन्न जलों की भाँति एक-दूसरे में मिले हए सिद्धों के बारे में 'एक ईश्वर' अथवा 'एक भगवान्' का व्यवहार होना भी असंगत अथवा अघटित नहीं है । मोक्ष का शाश्वतत्व :
यहाँ एक आशंका हो सकती है और वह यह कि 'जिस वस्तु की उत्पत्ति होती है उस वस्तु का विनाश भी होता है'-इस नियम के अनुसार मोक्ष की भी उत्पत्ति होने से उसका भी अन्त होना चाहिए । इस प्रकार मोक्ष शाश्वत सिद्ध नहीं हो सकता है ।
इसके समाधान में यह जानना चाहिए कि मोक्ष कोई उत्पन्न होनेवाली वस्तु नहीं है । केवल कर्म-बन्ध से छुट जाना अथवा आत्मा पर से कर्मों का हट जाना ही आत्मा का मोक्ष है । इससे आत्मा में कोई नई वस्तु उत्पन्न नहीं होती जिससे उसके अन्त की कल्पना करनी पड़े । जिस प्रकार बादल हट जाने से जाज्वल्यमान सूर्य प्रकाशित होता है उसी प्रकार कर्म के आवरण हट जाने से आत्मा के सब गुण प्रकाशित होते हैं, अथवा ऐसा कहो कि
आत्मा अपने मूल ज्योतिर्मय चित्स्वरूप में पूर्ण प्रकाशित होता है। इसी का नाम है मोक्ष । कहिए, इसमें क्या उत्पन्न हुआ ?
सर्वथा निर्मल मुक्त आत्मा पुनः कर्म से बद्ध नहीं होती और इस कारण उसका संसार में पुनरावर्तन' भी नहीं होता । महर्षि उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में कहा है
दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं प्रादुर्भवति नाङ्करः ।
कर्मबीजे तथा दग्धे न रोहति भवाङ्करः ॥ अर्थात् - जिस प्रकार बीज सर्वथा जल जाने पर उसमें अंकुर उत्पन्न नहीं होता उसी प्रकार कर्मरूपी बीज सर्वथा जल जाने पर संसाररूपी अंकुर उत्पन्न नहीं होता ।
१. "न स पुनरावर्तते, न पुनरावर्तते ।'—छान्दोग्योपनिषद् ।
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