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जैनदर्शन
मोक्ष की प्राप्ति मानव शरीर द्वारा ही होती है । देव स्वर्गीय स्वभावानुसार विरतिरहित होते हैं, अत: वे देवगति में से मुक्ति का परमधाम प्राप्त नहीं कर सकते । जो मोक्ष के योग्य होता है वह भव्य कहलाता है । अभव्य दशावाला मोक्ष के योग्य नहीं होता ।
जैन-शास्त्र के अनुसार ईश्वर का लक्षण है-"परिक्षीण सकलकर्मा ईश्वरः"-अर्थात् जिसके सम्पूर्ण कर्मों का निर्मूल क्षय हुआ है वह ईश्वर है । पूर्वोक्त मुक्तावस्था जिन्होंने प्राप्त की है उन परमात्माओं से ईश्वर भिन्न प्रकार का नहीं है । ईश्वरत्व का लक्षण और मुक्ति का लक्षण एक ही है । मुक्ति प्राप्त करना ही ईश्वरत्व की प्राप्ति है । 'ईश्वर' शब्द का अर्थ 'समर्थ' होता है । अतः अपने ज्ञानादि पूर्ण शुद्ध स्वरूप में पूर्ण समर्थ होनेवाले के लिये 'ईश्वर' शब्द बराबर लागू हो सकता है।
जैन शास्त्र कहते हैं कि मोक्षप्राप्ति के कारणभूत सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र का अभ्यास बढ़ता-बढ़ता जब पूर्ण स्थिति पर पहुँच जाता है तब आवरण-बन्ध सर्वथा दूर हो जाता है और आत्मा का ज्ञान आदि सम्पूर्ण स्वरूप पूर्णरूप से प्रकाशित होता है । इस स्थिति पर पहुँचना ही ईश्वरत्व' है । कोई भी आत्मा अपने स्वरूपविकास के अभ्यास में आगे बढ़े, परमात्मस्थिति पर पहुँचने का यथायोग्य प्रयत्न करे तो वह जरूर ईश्वर हो सकती है ऐसा जैन-शास्त्रों का सिद्धान्त है । ईश्वर कोई एक ही व्यक्ति है ऐसा जैन सिद्धान्त नहीं है । ऐसा होने पर भी परमात्मस्थिति पर पहुँचे हुए सब सिद्ध एक-जैसे निराकार होने के कारण, दीप-ज्योति की भाँति परस्पर मिल जाने से, समष्टिरूप से-समुच्चय से उन सबका 'एक' शब्द से कथंचित् व्यवहार हो सकता है। जिस प्रकार भिन्न-भिन्न नदियों का अथवा भिन्न-भिन्न कओं का इकट्ठा किया हुआ पानी एक-दूसरे में मिल जाता है-उनमें किसी
१. सामान्य केवलज्ञानियों की अपेक्षा तीर्थंकर पुण्यप्रकृतियों के महत्तर प्रभाव के कारण
तथा धर्म के एक महान् प्रभावशाली प्रकाशक की दृष्टि से बहुत उच्च कोटि पर हैं, परन्तु आत्मविकास इन दोनों का एक-जैसा ही है । निरावरणदशा से प्रादुर्भूत ज्ञानपूर्णता अथवा परमात्मदशा इन दोनों प्रकार के केवलियों में सर्वथा समान होती है । अतः ये दोनों (तीर्थंकर और सामान्यकेवली) परमात्मा हैं ।
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