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प्रथम खण्ड
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शान्ति के अतिरिक्त दूसरा कुछ भी नहीं है । और वह शान्ति भी कितने समय की ? क्षणभर में तो वह विलीन हो जाती है और पुनः अशान्ति का झंझावात पैदा हो जाता है । वह अल्पकालीन शान्ति भी कुछ ठोस नहीं होती, खोखली और ग्लानियुक्त होती है । संसार में रागद्वेष की विडम्बना और काम-क्रोध का सन्ताप क्या कुछ कम है ? रोग-शोक के आक्रमण क्या थोड़े हैं ? यह सब परिस्थिति क्या सुखरूप है ? शान्ति अथवा तृप्ति की मात्रा की अपेक्षा अशान्ति अथवा अतृप्ति की मात्रा क्या कितनी ही गुनी अधिक नहीं है ?
जिसे खुजली आती हो उसे ही खुलजाने में कुछ आनन्द मालूम होता है, दूसरे को उस ओर रुचि ही कैसे हो सकती है ? इसी प्रकार जो लोग मोहवासना में निरत हैं उन्हीं को मोह - चेष्टा अच्छी लगेगी, दूसरों की (विरक्त अथवा मुक्तात्माओं को) वह कैसे अच्छी लगेगी ? वैषयिक मोहवृत्ति, वस्तुतः, खुजली की भाँति प्रारम्भ में कुछ आनन्ददायी परन्तु पीछे से परिताप पैदा करनेवाली होती है । जिन की मोहरूपी खुजली सर्वथा शान्त हो गई है ऐसे मुक्त परमात्मा अपने निर्मल चिद्रूप में सदानन्दित हैं । इस प्रकार का— आत्मजीवन की पूर्ण निर्मल दशा का जो सुख है वही पारमार्थिक सुख है 1 ऐसे परमशुद्ध परमज्योति, परमानन्द परमात्माओं के लिए शुद्ध, बुद्ध, सिद्ध, निरञ्जन, परब्रह्म आदि नाम शास्त्रकारों ने रखे हैं ।
१. तृषा शुष्यत्यास्ये पिबति सलिलं स्वादु सुरभि । क्षुधार्तः सन् शालीन् कवलयति शाकादिवलितान् । प्रदीप्ते कामाग्नौ सुदृढतमाश्लिष्यति वधूं
प्रतीकारं व्याधेः सुखमिति विपर्यस्यति जनः ॥ - महात्मा भर्तृहरि-वैराग्यशतक ।
अर्थात् — प्यास से मुँह सूखने पर मनुष्य मीठा पानी पीता है, भूख लगने पर शाक आदि के साथ भात खाता है और कामाग्नि प्रज्वलित होने पर स्त्रीसंग करता है । इस प्रकार व्याधि (कष्ट) का जो प्रतीकार है उसे वह सुख समझता है किन्तु यह उसकी भ्रान्ति ही है ।
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