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प्रथम खण्ड
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ठंडी बाल-सूर्य के मन्द मन्द ताप से घटती-घटती अधिक ताप पड़ने पर बिलकुल उड़ जाती है उसी प्रकार कमी- बेशी वाले रागद्वेष दोष जिस कारण से कम होते हैं वह कारण यदि पूर्णरूप से सिद्ध हो तो वे दोष समूल नष्ट हों इसमें क्या अयुक्त है ? रागद्वेष शुभ भावनाओं के बल से घटते हैं और आगे बढ़कर आत्मा जब श्रेष्ठ समाधियोग पर पहुँचती है तब राग-द्वेष का पूर्ण क्षय होता है । इस प्रकार राग-द्वेष का क्षय होने पर निरावरणदशा आत्मा को प्राप्त होती है । इस दशा की प्राप्ति होते ही केवलज्ञान का प्रादुर्भाव होता है; क्योंकि राग- द्वेष का क्षय होते ही ज्ञानावरण, दर्शनावरण तथा अन्तराय इन तीनों कर्मों का क्षय हो जाता है । सम्पूर्ण संसाररूपी महल केवल दो ही स्तम्भों पर टिका हुआ है और वे हैं राग-द्वेष । मोहनीय कर्म का ( मोह का ) सर्वस्व राग-द्वेष है । ताड वृक्ष के सिर पर सूई लगा देने से जिस प्रकार सारा ताड़ वृक्ष सूख जाता है उसी प्रकार सब कर्मों के मूलरूप राग-द्वेष पर प्रहार करने से, उनका उच्छेद करने से सारा कर्म-वृक्ष सूख जाता है— नष्ट हो जाता है ।
केवलज्ञान की सिद्धि :
राग-द्वेष के क्षय से (मोहनीय कर्म के क्षय के बाद तत्क्षण ही शेष तीन' घाती' कर्मों का क्षय हो जाने से ) प्रादुर्भूत केवलज्ञान के सम्बन्ध में जो स्पष्टीकरण किया जाता है वह इस प्रकार है । ज्ञान की मात्रा मनुष्यों में न्यूनाधिक देखी जाती है । यह क्या सूचित करती है ? यही कि आवरण जितनी मात्रा में हटता जाता उतनी मात्रा में ज्ञान भी वैसे-वैसे अधिकाधिक प्रकाशित होता है । और वह आवरण यदि सर्वथा हट जाय तो पूर्ण ज्ञान प्रकट हो सकता है । यह बात एक दृष्टान्त से समझायी जाती है । वह दृष्टान्त इस प्रकार है । छोटी बड़ी वस्तुओं में जो लम्बाई चौड़ाई एक की अपेक्षा दूसरी में अधिक-अधिक दिखती है उस बढ़ती लम्बाई-चौड़ाई का पूर्ण प्रकर्ष जिस प्रकार आकाश में होता है उसी प्रकार ज्ञान की मात्रा भी बढ़ती बढ़ती किसी पुरुष - विशेष में पूर्ण कला पर पहुँच सकती है । ज्ञान के वर्धमान प्रकर्ष की पूर्णता जिसमें प्रकट होती है वह (पूर्ण ज्ञान - प्रकाश प्राप्त करने वाला) सर्वज्ञ, सर्वदर्शी कहलाता है और उसका जो ज्ञान
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