________________
२१८
जैनदर्शन लोभ आदि कषायदोषों के जिस विकट बन्धन से हम बद्ध हैं उस बन्धन को तोडे बिना अथवा उसे ढीला किए बिना दूसरा कोई मार्ग भवसागर से पार उतरने के लिये नहीं है यह एक ध्रुव सत्य है ।
अब प्रस्तुत लेख के साररूप से कारण-कलाप के नाम-निर्देश को पुनः देख लें ।
घट के बारे में
कर्ता : कुंभार । कार्य : घट । क्रियाः हस्तकौशल से होने वाली क्रिया ।
उपादानकारण : मिट्टी । निमित्तकारण : दण्ड, चक आदि ।
असाधारणकारण : मिट्टी के पिण्ड में से घड़े के बनने तक में जो अवान्तर आकार [परिणाम] होते हैं वे सब ।
अपेक्षाकारण : जमीन, आकाश आदि । आध्यात्मिक विकास के बारे मेंकर्ता : आत्मा । कार्य : आत्मा का परमात्मभाव । क्रिया : सदाचरण । उपादानकारण : स्वयं आत्मा । निमित्तकारण : सद्देव, सद्गुरू, सक्रिया आदि का अवलम्बन । असाधारणकारण : अवान्तर विकासपरम्परा ।
अपेक्षाकारण : मानवभव, शरीरसामर्थ्य आदि । १८. नियतिवाद :
नियतिवाद अर्थात् दैववाद अथवा भवितव्यतावाद । इसे भाग्यवाद भी कहते हैं । ज्ञानहीन कायर मनुष्य ऐसा समझता है कि मनुष्य के हाथ में है ही क्या ? जो कुछ भाग्य में बदा है अथवा पहले से नियति है वह होकर ही रहेगा । अत: कुछ करने की अथवा प्रयत्न करने की बात ही व्यर्थ है। धन-संचय करने के लिये पाप करनेवाले धनी लोग धृष्टतापूर्वक दैववाद को आगे करते हैं । ऐसे मनुष्य कहते हैं कि जो कुछ हो रहा है उसमें हमारा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org