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________________ तृतीय खण्ड २१९ क्या अपराध ? यह तो सब पहले से नियत ही था और जो नियत हो वह हजार प्रयत्न करके भी थोड़े ही बदला जा सकता है ? अतः जो कुछ हो रहा है उसका उत्तरदायित्व हम पर नहीं है । इस प्रकार यह नियतिवाद अथवा दैववाद जीवन-सुधार का शत्रु है । यह तो पापियों को अपना पाप छुपाने का, धनिकों को अपनी वैधानिकसफेद लूट छुपाने का और कायरों को अपनी कायरता छुपाने का सहारा है । दैववाद का सहारा लेने से शान्ति मिलती है ऐसा कहा जाता है, परन्तु वस्तुतः वह शान्ति नहीं है किन्तु जड़ता है, जीवन का पतन है । एक मनुष्य मर कर यदि पेड़ बने तो उसकी संवेदनशक्ति घट जायगी; उसे जीने-मरने की कर्तव्य-अकर्तव्य की कोई चिन्ता ही नहीं रहेगी । इससे क्या ऐसा कहा जा सकता है कि मनुष्य मर कर पेड़ हुआ इससे उसे बहुत शान्ति मिली ? ऐसी जड़ता को शान्ति कहा जा सकता है ? एक मनुष्य शराब के नशे में यदि चूर हो जाय तो उसकी जड़भाव-दशा को क्या शान्ति कह सकते है ? यदि मनुष्य अपना उत्तरदायित्व भूल जाय, अपने पापमय अथवा पतनमय जीवन में भी शान्ति या सन्तोष मानने लगे तो यह क्या उसके लिये अच्छी बात है ? नहीं, यह तो उसकी दुर्गति है । इस पर से यह स्पष्ट है कि दैववाद अथवा नियतिवाद का प्रचार जनता को अहितकर अथवा दुर्गतिकारक मार्ग की ओर ले जाता है । श्रमण भगवान महावीर के समय में श्रीमान् कुम्भार सद्दालपुत्त आजीवकमत के नेता मंखलिपुत्र गोशालक के नियतिवाद में मानता था । भगवान् महावीर ने उसे समझाने की दृष्टि से पुछा, "सद्दालपुत्र ! मिटी के ये सब बरतन तुम्हारे प्रयत्न से ही बने हैं या स्वत: बने हैं ? उसने कहा, "भगवान् सब पदार्थ नियतिस्वभाव हैं । अपने-अपने स्वभाव के अनुसार स्वयं नियतिबल से बनते हैं । इसमें पुरुषप्रयत्न अथवा निमित्तप्रयोग क्या कर सकता है ?" इस पर भगवान् ने पूछा, "यदि कोई मनुष्य डण्डे से तुम्हारे १. 'उवासगदसाओ' सूत्र में भगवान् महावीर के दस श्रावकों का जीवनचरित दिया है । उन दस श्रावकों में एक सद्दालपुत्त नाम का कुंभार भी था । उसके चरित्र में से यह वृत्तान्त यहाँ दिया गया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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