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तृतीय खण्ड
२१७ ___शरीरधारी कोई भी व्यक्ति मानसिक क्रिया की तो क्या बात, शारीरिक क्रिया के बिना भी नहीं रह सकता । धार्मिक प्रेरणा को जागरित करने के लिये सभी सम्प्रदायों में अपन-अपने ढंग से धार्मिक क्रियायों की आयोजना की गई है और उनका उद्देश जीवन को सदाचरणी बनाने का है । यह बात खूब ध्यान में रखने योग्य है कि धार्मिक मानी जानेवाली क्रिया सदाचार की दिशा की ओर ले जाय इसी में उसकी सच्ची सफलता है । भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों की भिन्न-भिन्न प्रकार की क्रियाओं पर असहिष्णु बनना और झगडा करना हमारी अज्ञानदशा का सूचक है । हमें अत्यन्त दृढतापूर्वक यह समझ लेना चाहिए कि जिसमें भगवत्स्मरण हो, अपने पापों की आलोचना तथा गर्हणा हो और आत्मकल्याण साधने की पवित्र भावना हो—ऐसी कोई भी (किसी भी सम्प्रदाय अथवा मजहब की) क्रिया श्रेयस्कर है ।
आध्यात्मिक विकास के लिये मनुष्यभव, योग्य क्षेत्र शक्तिसम्पन्न शरीरसंगठन आदि सुविधाएँ अपेक्षित होने से वे अपेक्षाकारण कहे जा सकते हैं । वे सब योग्य साधन मिलने पर भी उनका सदुपयोग न करके मनुष्य अन्धकार में भटकते रहते हैं ! ये सब, निःसन्देह आत्मविकास की भावनावाले को आगे बढ़ने में बहुत सहायक होते हैं । निमित्तकारण का मुख्य और गौण अथवा प्रथम कक्षा का और उत्तर कक्षा का इस तरह दो विभागों में विभाजन करने पर सन्तसमागम, क्रियानुष्ठान आदि मुख्य अथवा प्रथम कक्षा के निमित्तकारण तथा मनुष्यशरीर आदि गौण अथवा अथवा उत्तर कक्षा के निमित्तकारण कहे जाते हैं । बोध लेने की दृष्टि से एक छोटा किस्सा भी यहाँ सुना दूँ !
मथुरा के दो अलमस्त चौबे मथुरा से गोकुल जाने के लिये रात के समय नाव में बैठे और खूब जोरों से उसे खेने लगे, परन्तु प्रभात होने पर देखा तो वे जहाँ से नाव में बैठे थे वहाँ से तनिक भी आगे नहीं बढ़े थे । उन्हें खूब आश्चर्य हुआ कि इतना अधिक परिश्रम करने के बाद भी ऐसा क्यों हुआ ? किसी ने जब उनका ध्यान रस्से की ओर आकर्षित किया तभी वे जान सके कि नाव को किनारे पर के पेड़ के साथ जिस रस्से बाँधा था वह रस्सा ही छोड़ना रह गया था ! इसी प्रकार मिथ्यादृष्टि और क्रोध,
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