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जैनदर्शन
परमात्मभाव के प्रादुर्भाव में आता है । ये सब अवान्तर विकास पूर्णतारूप पूर्ण सिद्धि में पूर्ण होते हैं, अतः वे असाधारण कारण गिने जाते हैं ।
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प्रत्येक कार्य की सिद्धि में निमित्तकारण का योग अवश्य अपेक्षित है । प्रस्तुत विषय में भी निमित्तकारणभूत सदेव, सद्गुरू तथा बाह्य क्रिया के अवलम्बन की आवश्यकता है ।
जिसने पूर्ण परमात्मापद प्राप्त किया है वह वीतरागदेव सदेव हैं । वह हमारा आदर्श और अनुकरणीय व्यक्ति है । उसकी वीतरागता के बारे में विचार करने पर, उसका चिन्तन-मनन करने पर हमें भी वीतरागता सिद्ध कर सकते हैं । ऐसा हमें प्रतीत होता है और वैसा विश्वास हम में पैदा होता है । रागी के संग से जिस प्रकार रागी बनते हैं उसी प्रकार वीतराग के संग से (अर्थात् उनके चिन्तन-मनन- प्रणिधान-ध्यान से) वीतराग हुआ जा सकता है - जैसे 'इलिका भ्रमरी जाता ध्यायन्ती भ्रमरी यथा' अर्थात् भ्रमरी ने जिसे काट लिया है ऐसा कीडा भ्रमरी का ध्यान करता हुआ स्वयं भ्रमरी बन जाता है । जिस प्रकार भेडों के समूह में पले हुए सिंह के बच्चे को सच्चे सिंह का स्वरूप देखने पर तथा उसकी गर्जना सूनने पर अपने सच्चे स्वरूप का भान होता है उसी प्रकार सदेव के स्वरूप का, हमारी कल्पना में भी, परिचय होने पर हमारा स्वरूप भी वस्तुतः सत्तारूप से वैसा ही है ऐसा भान हममें जागरित होता है ।
सद्गुरू अपने शास्त्राभ्यास तथा अनुभव से प्राप्त ज्ञान के आधार पर हमें हमारे ध्येय की पहचान कराते हैं और उस ध्येय पर पहुँचने का मार्ग हमारी योग्यता के अनुसार बतलाते हैं, जिससे हम जहाँ हों वहाँ से क्रमशः आगे प्रगति कर सकें । जो दम्भी, आडम्बरी, यशोलोलुप, ज्ञानदरिद्र और अविवेकी होता है वह तो गुरू (सद्गुरू) कहला ही नही सकता । धीर - गम्भीर, शान्त, समभावी, समदर्शी, तत्त्वज्ञ, उदारतत्त्वविवेचक और लोककल्याण की विशाल भावना से युक्त तथा सदाचरण की मूर्तिरूप पवित्र सन्त ही गुरू (सद्गुरू) है । वही 'स्वयं तरंस्तारयितुं क्षमः परान् ' है । ऐसा गुरू हमें अनुचित रूप से कुदान भरने को या दौड लगाने को नहीं कहेगा, परन्तु उचित रूप से प्रगति के पुण्य पथ पर आरोहण करने के लिये प्रेरित करेगा ।
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