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________________ तृतीय खण्ड २१५ इसके (निःश्रेयस के) स्वरूप के सम्बन्ध में अर्थात् वीतराग परम आत्मा की मरणोत्तर स्थिति-मोक्ष के स्वरूप के बारे में इन सबकी विचारदृष्टि भिन्न-भिन्न है । फिर भी इसकी प्राप्त के लिये वीतरागत्व की प्राप्ति की अनिवार्य आवश्यकता सब स्वीकार करते हैं तथा यही (वीतरागता) मुक्ति का वास्तविक स्वरूप है ऐसा वे प्रतिपादि भी करते हैं । वीतरागत्वरूप ध्येय की साधना के रूप में जिस क्रिया की उपयोगिता है वह है संयम । संयम अर्थात् हिंसादि दोषों को दूर करके अहिसा, सत्य आदि सद्गुणों को तथा काम, क्रोध, लोभ, अहंकार जैसी दुर्वृत्तियों को हटकर सात्विक शुद्ध रसवृत्ति और शम, सन्तोष, मृदुता, मैत्री आदि पवित्र भावों को विकसित करने में तत्पर रहना । इसी का नाम सदाचरण है । ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों तथा चित्त के सुप्रशस्त योग से सम्पन्न साधक की संयम-साधना जैसे-जैसे खिलती जाती है वैसे-वैसे उसका आत्मा ऊपर चढता जाता है। जिस प्रकार मिट्टी में घड़ा शक्तिरूप विद्यमान है उसी प्रकार आत्मा में परमात्मा शक्तिरूप से विद्यमान है। प्रत्येक आत्मा अपने मूल स्वरूप में परमात्मा है । मिट्टी को साधनप्रयोग द्वारा जिस प्रकार घड़े में परिवर्तित किया जाता है उसी प्रकार साधक अपने आत्मा को संयम-योग के साधन द्वारा परमात्मा में बदल देता है । परमात्मभाव को प्राप्त करने के लिये क्रमिक प्रयत्नों की-उत्तरोत्तर विकासगामी प्रयत्नों की परम्परा चलती है और तदनुसार उत्तरोत्तर विकास सधता जाता है । इस विकास-क्रम की धारा का नाम ही गुणस्थानकमारोह है और इसे हम पहले गुणस्थानों के विवरण में देख चुके हैं । संक्षेप में, मिथ्यादृष्टि निरस्त होने पर सम्यग्दृष्टि की उपलब्धि होना प्रथम और बुनियादी विकास हैं । इसके पश्चात् देशविरति (अर्थात् मर्यादित संयमी जीवन), सर्वविरति (व्यापक संयमी जीवन), अप्रमत्त महात्मजीवन और इसके बाद उच्च श्रेणी का योगी जीवन-इस प्रकार प्रगति-क्रम के पथ पर साधक जैसे-जैसे क्रमशः आगे बढ़ता जाता है वैसे-वैसे उसका उत्तरोत्तर अधिकाधिक विकास होता जाता है । अन्ततः इन सब विकासों का पूर्णरूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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