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पंचम खण्ड
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श्रीहेमचन्द्राचार्य ने ऊपर के पाठ में बतलाया है । इसके अतिरिक्त दूसरे उपयोग का उन्होनें कोई उल्लेख नहीं किया है । ]
धर्म का अनुशासन सत्यवादी बनने का है । परन्तु किसी पशु की हिंसा के लिये उसके पीछे कोई शिकारी पड़ा हो और उसके पूछने पर जानकारी होने पर भी पशु की रक्षा के लिये निरुपाय होकर यदि अतथ्य बोलना पड़े तो वैसा बोलने का आपवादिक विधान भी उत्सर्ग-विधान की भाँति अहिंसा की साधना के लिये होने से कर्तव्यरूप' हो जाता है । इस तरह उत्सर्ग और अपवाद इन दोनों का एक ही लक्ष्य है ।
इसी तरह स्त्री का स्पर्श साधु के लिये निषिद्ध होने पर भी यदि कोई स्त्री नदी, आग अथवा ऐसी कोई विकट आपत्ति में फँस गई हो तो उस समय उसे, उसका स्पर्श करके भी बचाने का धर्म साधु को भी प्राप्त होता है । साधु के लिये विहित स्त्रीस्पर्श — निषेध के पीछे ब्रह्मचर्य सुरक्षित रहे यह दृष्टि है, जो कि अहिंसा की एक प्रदेशभूमि है । इसी तरह ऐसा आपवादिक स्पर्श भी ब्रह्मचर्य की विशाल भूमिरूप अहिंसा के पोषण के लिये है । इस तरह स्पर्शनिषेध और स्पर्श दोनों का लक्ष्य एक ही है ।
जं दव्वखेत्तकालाइसंगयं भगवया अणुट्ठाणं ।
भणियं भावविसुद्धं निप्फज्जइ जह फलं तह उ ॥ ७७८ ॥ - हरिभद्रसूरि, उवएसपय. ( उपदेश पद) न वि किंचि अणुण्णायं पडिसिद्धं वा वि जिणवर्रिदेहिं । एसा तेसिं आणा कज्जे सच्चेण होअव्वं ॥ ३३३०
- बृहत्कल्प पृ. ९३६.
अर्थात् — भगवान् ने मनोभाव को शुद्ध रखकर द्रव्य क्षेत्र - काल - भाव के अनुकूल कृत्य करने का आदेश दिया है । जिस तरह स्व- परकल्याणरूप फल निष्पन्न हो उसी तरह व्यवहार करने की उनकी आज्ञा है ।
१.
'यस्तु संयमगुप्त्यर्थे न मया मृगा उपलब्धा इत्यादिकः स न दोषाय ।' - 'सूत्रकृतांग' के ८वें अध्ययन की १९वीं गाथा की वृत्ति में ।
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