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________________ ४०४ जैनदर्शन जिनेन्द्र भगवान् ने कोई कृत्य करने का एकान्तरूप से आदेश नहीं दिया है और न किसी बात का निषेध भी एकान्तरूप से किया है । भगवान् की आज्ञा तो इतनी ही है कि कार्य-प्रवृत्ति में सच्चाई से बरतना चाहिए । अनेकान्तवाद के बारे में अन्त में एक चेतावनी भी दे देनी उपयुक्त होगी : वस्तु को एक नहीं किन्तु अनेक पहलुओं से देखना, उसकी जाँच करना और संगत होनेवाले सब पहलूओं का परस्पर सामञ्जस्य स्थापित करना—यह अनेकान्तवाद का अर्थ है । परन्तु जो बात घटित न होती हो, असङ्गत हो वैसी बात को घटित अथवा संगत सिद्ध करना यह तो बालचेष्टा ही कही जायगी । इस तरह तो अनेकान्तवाद 'अन्धाधुन्धवाद' बन जाय । जिस समय जिस प्रवृत्ति के औचित्य के लिये विवेकदृष्टि का सहारा न हो और जिसे विवेक अयोग्य प्रमाणित करता हो उसके लिये अनेकान्त का अवलम्बन लेना अथवा उसे स्याद्वाद से संगत बनाने का प्रयत्न करनास्याद्वाद की आड में उसे उचित और आदरणीय ठहराना यह अनेकान्तवाद का दुरूपयोग करना है, उसका मजाक उडाने जैसा है । अनेकान्तवाद बिना पैदे का मुरादाबादी लोय नहीं है कि जिस तरफ चाहो उसे लुढका दो । वह तो असन्दिग्धरूप से न्याय्य समन्वयवाद है, यह हमें रखना चाहिए । निक्षेप ज्ञान का वाहन भाषा है । अमूर्त ज्ञान भाषा में अवतीर्ण होकर और इस तरह मूर्त बनकर व्यवहार्य होता है । भाषा शब्दात्मक है शब्द का सामान्य अर्थप्रयोग चार प्रकार का देखा जाता है । ये चार प्रकार हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । उदाहरणार्थ 'राजा' शब्द को लें । किसी का नाम यदि राजा हो तो उसका इस नाम से व्यवहार होता है । वह नाममात्र के राजा होने के कारण 'नाम- राजा' है । अत: 'राजा शब्द का यह अर्थ नामनिक्षेप कहलाता है । राजा की मूर्ति, चित्र अथवा फोटो को भी राजा कहा जाता है—जिस तरह भगवान् की मूर्ति को भगवान् कहते हैं उस तरह । यह स्थापना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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