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दिगम्बर । क्रियाकाण्ड और आचारव्यवहार विषयक मतभेदों को एक ओर रखने पर इन दोनों परम्पराओं का धार्मिक एवं दार्शनिक साहित्य प्रायः पूर्णत: समान है ।
जैनदर्शन के बारे में स्वर्गीय जर्मन विद्वान् डॉ० हर्मन जेकोबी ने कहा है कि
'In conclusion let me assert my conviction that Jainism is an original system, quite distinct and independent from all others and that, therefore, it is of great importance for the study of philosophical thought and religious life in ancient India.' (Read in the Congress of the History of Religions.)
अर्थात् — अन्त में मुझे अपना निश्चय सूचित करने दो कि जैनधर्म एक मौलिक धर्म है, दूसरे सब धर्मों से पृथक् और स्वतन्त्र है तथा प्राचीन भारत के तत्त्वज्ञान एवं धार्मिक जीवन के अभ्यास के लिये वह अत्यन्त महत्त्व का है ।
१. 'शेषं श्वेताम्बरैस्तुल्यमाचारे दैवते गुरौ । श्वेताम्बरप्रणीतानि तर्कशास्त्राणि मन्वते ॥
स्याद्वादविद्याविद्योतत् प्रायः साधर्मिका अमी ॥'
-- षड्दर्शनसमुच्चय, राजशेखरसूरि
इसका भावार्थ यह है कि 'स्त्री को मुक्ति नहीं मिलती' 'देहधारी केवलज्ञानी भोजन नहीं करता' इत्यादि बातों के तथा वस्त्र न पहनना' इत्यादि साधु के आचार-व्यवहार के अतिरिक्त बाकी प्राय: सब दिगम्बर श्वेतांबर सम्प्रदाय में समान हैं। एक-दूसरे के तर्कशास्त्रों को वे मान्य रखते हैं । जैनधर्म के मुख्य सिद्धान्त स्याद्वाद का वे दोनों एक जैसे उत्साह से समर्थन करते हैं । इससे वे परस्पर साधर्मिक हैं ।
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[दोनों में महाविद्वान् और पूजनीय पुरुष हुए हैं, दोनों का साहित्य विशाल एवं समृद्ध है, दोनों सहोदर की भाँति असाधारण प्रेम से मिलजुलकर रहें ऐसी सब वस्तु विद्यमान है, फिर भी बहुत दुःख की बात है कि ये बहुत जुदाई रखते हैं। दोनों यदि मिलकर रहें तो ये अपने संयुक्त बल से महावीर देव के पवित्र शासन की उन्नति बहुत अच्छी कर सकते हैं ।
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