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जैनदर्शन प्रकार की निर्जरा है और उपभोग के अनन्तर कर्म जो स्वतः झड जाते हैं वह दूसरे प्रकार की निर्जरा है । पहले प्रकार की निर्जरा सकामनिर्जरा कहलाती है, जब कि दूसरे प्रकार की अकाम-निर्जरा । जिस प्रकार वृक्ष के फल वृक्ष के ऊपर समय आने पर स्वत: पक जाते हैं और अन्य उपायों से भी उन्हें पकाया जाता है उसी प्रकार कर्म भी समय आने पर स्वतः पक कर अर्थात् उनका उपभोग हो जाने के बाद झड जाते हैं और तप-साधन के बल से भी उन्हें (कर्मों को) पका कर क्षीण किया जाता है ।
बँधे हुए कर्मों को अपने तपसाधन के बल से यदि आत्मा झटक देना चाहे तो वे झटकाए जा सकते हैं, अन्यथा समय पूरा होने पर अपना फल चखा कर अर्थात् उनका उपभोग होने के पश्चात् स्वतः झड जाना तो उनका स्वभाव ही है । परन्तु इसके साथ यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि इनके भुगतने में यदि काषायिक आवेश, अशान्ति अथवा दुर्ध्यान हो जाय तो इनसे पुनः कर्म का बन्ध होता है । इस प्रकार कर्मबन्ध की एक लम्बी-- अनन्त परम्परा चल सकती है । कर्म का फल यदि आत्मशान्ति से सहन किया जाय और पुनः कर्मबन्ध के पाश बँधने न पाए ऐसे शमभाव और समभाव से जीवनयात्रा चलती रहे (इस प्रकार की आध्यात्मिकता का विकास होता रहे तो) सब कर्मों और सब दुःखों से मुक्त ऐसी मोक्षावस्था प्राप्त की जा सकती है।
ऊपर कहा जा चुका है कि 'संवर' का अर्थ है 'आस्रव' को अर्थात् कर्मबन्ध के व्यापार को रोकनेवाला आत्मा का शुद्ध भावपरिणाम । यह संवर 'गुप्ति' आदि साधनों से साध्य है । मन-वचन-काय के सम्यग् निग्रहरूप 'गुप्ति', विवेकशील प्रवृत्तिरूप 'समिति', क्षमा-मृदुता-ऋजुता शौच-सत्यसंयम-तप-त्याग-आकिंचन्य-ब्रह्मचर्य रूप धर्म, 'भावना' अर्थात् वस्तुस्थिति के कल्याणप्रेरक चिन्तन, शान्तभावयुक्त सहिष्णुता रूप 'परीषहजय' और समभावपरिणतिरूप 'सामायिक' आदि चारित्र-इतनी बातों से 'संवर' (कर्म
१. भूख-प्यास, ठंडी-गरमी, मान-अपमान, रोग-पीड़ा, आदि को शान्तभाव से सहना,
प्रलोभन के समय लुब्ध न होना, बुद्धि अथवा विद्वत्ता का घमण्ड न करना, बुद्धिमान्य के कारण उद्विग्न न होना इत्यादि 'परीषहजय' हैं ।
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