SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 58
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम खण्ड २७ बन्ध का निरोध) साध्य है । और, 'निर्जरा' तप से साध्य है । अन्तर्मुख बाह्यतप से और 'प्रायश्चित्त' (दोषशोधन की क्रिया), "विनय', 'वैयावृत्त्य' (सेवा-भक्ति), 'स्वाध्याय', 'व्युत्सर्ग' (ममत्व एवं काषायिक विकारों को हटाना) तथा मानसिक एकाग्रतारूप 'ध्यान'—इस प्रकार के आभ्यन्तर तप से निर्जरा होती है । तप से जिस प्रकार निर्जरा होती है उसी प्रकार उससे संवर भी होता है । इसी प्रकार संवरसाधन के उपर्युक्त 'गुप्ति' आदि भेद भी तपोगर्भित होने से 'निर्जरा' के साधक होते हैं । यह तो ऊपर कहा जा चुका है कि अपनी स्थिति पूर्ण होने पर कर्म पक कर झड जाते हैं, किन्तु इस प्रकार की 'निर्जरा' का क्रम तो सम्पूर्ण संसार (भवचक्र) के समग्र जीवों में सतत चालू है, परन्तु कल्याणी 'निर्जरा' तो वही है जो पुण्य भाव के सहयोग से सम्पन्न हो । संवर एवं निर्जरा जब अपने पूर्ण उत्कर्ष पर पहुँचते हैं तब मोक्ष प्राप्त होता है । ज्ञानावरण, दर्शनावरण, 'मोहनीय तथा अन्तराय ये चार कर्म 'घाती कर्म' कहलाते हैं, क्योंकि वे आत्मा के केवलज्ञान आदि निजस्वरूपात्मक मुख्य गुणों का घात करनेवाले (उन गुणों के आवारक) हैं । इन चार घाती कर्मों का क्षय होने पर केवलज्ञान प्रकट होता है । इस ज्ञान के प्रकट होने के साथ ही आत्मा पूर्णद्रष्टा-पूर्णज्ञानी बनती है । बाद में वह आयुष्य पूर्ण होने के समय अवशिष्ट चार कर्म, जो 'अघाती' अथवा 'भवोपग्राही' कहलाते हैं, उनका क्षय करती है और उसी क्षण सीधा ऊर्ध्वगमन करती हुई वह क्षणमात्र में लोक के अग्रभाग पर अवस्थित हो जाती है । इस अवस्था को कहते हैंमोक्ष : बन्धहेतुओं के अभाव तथा निर्जरा से कर्म का आत्यन्तिक क्षय होना ही मोक्ष है । मोक्ष अर्थात् सभी कर्मों का क्षय । समग्र कर्मों का क्षय होने १. घाती से विपरीत अघाती । २. 'भव' अर्थात् संसार अथवा शरीर, उसे टिकानेवाला-~यह 'भवोपग्राही' शब्द का अर्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy