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बिलकुल सूखी लकडी पर पड़ी हुई धूल की तरह, लगते ही क्षणमात्र में झड जाते हैं । मन-वचन-काय के योग यदि कषाय आदि से दूषित हों तो कर्मद्रव्य आत्मा के साथ चिपक जाते हैं, अन्यथा नहीं ।
प्रथम खण्ड
इस प्रकार कषाय एवं योग ये दो ही यद्यपि कर्मबन्ध के हेतु हैं, फिर भी आध्यात्मिक विकास की उच्चावच भूमिकारूप गुणस्थानों में बँधनेवाली कर्म - प्रकृतियों के तरतमभाव का कारण विशेष स्पष्टरूप से जताने के लिये मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और योग ये चार बन्धहेतु भी कहे गए हैं । जिस गुणस्थान में इन चार में से जितने अधिक बन्ध - हेतु, उस गुणस्थान में कर्म प्रकृतियों का उतना अधिक बन्ध और जिस गुणस्थान में बन्ध-हेतु वहाँ कर्म-प्रकृतियों का बन्ध भी कम । इन चार के साथ 'प्रमाद' को जोड़ देने पर बन्ध के हेतु पाँच होते हैं, परन्तु असंयम - रूप प्रमाद का समावेश यदि अविरति अथवा कषाय में किया जाय तो बन्ध के उपर्युक्त चार हेतु गिनाए जा सकते हैं । इसी प्रकार मिथ्यात्व और अविरति इन दोनों का स्वरूप कषाय से अलग मानने पर कषाय एवं योग ये दो ही मुख्यतया बन्धहेतु समझे जा सकते हैं ।
कम,
इन कर्मबन्ध के हेतुओं का निरोध उनके विरोधी गुणों के उत्कर्ष से ही शक्य है । 'मिथ्यात्व' का निरोध सम्यग्दर्शन से अर्थात् आत्मा की सच्ची ज्ञानदृष्टि से, 'अविरति' का विरति से अर्थात् पापाचरण से विरत होने से, 'प्रमाद' का अप्रमादभाव से अर्थात् कर्तव्यसाधन में जागरूकता से, और क्रोध - माया-लोभरूपी 'कषायों' का अनुक्रम से क्षमा- मृदुता - ऋजुता - सन्तोष से होता है । मन-वचन-काय के व्यापाररूप योग मन-वचन-काय के सदुपयोग तथा संयम - संस्कार से शुभ एवं निर्मल बनते हैं और उनके निरोध के समय उनका निरोध होता है ।
इस प्रकार कर्मबन्ध के हेतुओं को रोकने का नाम 'संवर' है और बँधे हुए कर्मों के अंशतः नाश का नाम है — निर्जरा ।
यह निर्जरा दो प्रकार से होती है । उच्च आशय से किए जानेवाले तप से आत्मस्पर्शी उत्कट साधना से कर्म का जो क्षय होता है वह पहले
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