________________
२४
जैनदर्शन
में परिणत होने वाला कर्म पुद्गलों का समूह अपने-अपने स्वभाव के अनुसार अमुक अमुक परिमाण में विभक्त हो जाता है ।
बन्ध के इन चारों प्रकारों में से प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध योग (मन-वचन-काय के व्यापार) के कारण होते हैं, क्योंकि अकषायी आत्मा को भी उसके केवल 'योग' के कारण ही कर्म का बँध होता है, परन्तु वह क्षणिक होता है । स्थितिबन्ध तथा अनुभावबन्ध कषाय के कारण होते हैं इस प्रकार कषाय एवं योग ये दो कर्मबन्ध के हेतु हैं ।
I
I
विशेष ब्योरे से विचार करने पर कर्मबन्ध के हेतु मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग-ये हैं । आत्मा के विषय में अश्रद्धा, अथवा आत्मभावना के अभाव को 'मिथ्यात्व' कहते हैं । हिंसादि दोषों से विरत न होना और भोगों में आसक्ति होना इसे 'अविरति' कहते हैं । 'प्रमाद' यानी आत्मा का विस्मरण अर्थात् कुशल कार्यो में आदर न रखना, कर्तव्य-अकर्तव्य की स्मृति में सावधान न रहना । क्रोध, लोभ आदि विकार 'कषाय' हैं और मन-वचन-काय की प्रवृत्ति को 'योग' कहते हैं ।
जिस प्रकार नहर आदि के खुले रहने पर तालाब में पानी बह कर आता है और उन द्वारों को बन्द कर देने पर पानी आना रुक जाता है, अथवा जलयान में छिद्रों द्वारा पानी भीतर आता है और उन छिद्रों को बन्द कर देने से पानी का भीतर आना रुक जाता है उसी प्रकार मनोवाक्कायकर्मरूपी आस्रव-द्वारों से कर्मद्रव्य आकृष्ट होकर आत्मा में प्रविष्ट होते हैं, परन्तु यदि वे मार्ग (कर्मप्रवेश के मार्ग) बन्द कर दिए जायँ तो कर्मद्रव्य का आना बन्द हो जाता है । जिस प्रकार खिडकी आदि बन्द कर देने पर घर में रखे हुए कपड़े आदि पदार्थों पर धूल नहीं जमने पाती उसी प्रकार मनोवाक्कायकर्मरूपी आस्रव-द्वार जब बन्द हो जाते हैं तब आत्मा के साथ कर्म बिलकुल नहीं चिपकते । ऐसी स्थिति जीवन्मुक्त के निर्वाणकाल के अन्तिम क्षण में प्राप्त होती है। निर्वाण से पूर्व शरीर का सम्बन्ध होने से मन-वचन-काय के योग विद्यमान होते हैं, जिससे उन 'योग' रूपी आस्रव के द्वारा उस जीवन्मुक्त एवं अकषायी आत्मा के साथ कर्मद्रव्य का किंचित् सम्बन्ध होता है । परन्तु वे कर्मद्रव्य निष्कषाय एवं प्रमादरहित केवल 'योग' द्वारा आकृष्ट होने के कारण,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org