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हुए कुछ लोग अपनी संकुचित दृष्टि के परिणामस्वरूप, दूसरों के तत्त्वग्रन्थों का अवलोकन करने की उदारवृत्ति उनमें न होने से, जैन-ग्रन्थों के तत्त्वबोधक पठन-पाठन से वंचित रह जाते हैं ।
परन्तु मैं कह सकता हूँ कि भारतीय दर्शन एवं साहित्य का अभ्यास जैनदर्शन के और जैन-साहित्य के अभ्यास के बिना बहुत अपूर्ण रहने का, और तटस्थभाव से यह भी कहा जा सकता है कि जैनधर्म के तात्त्विक ग्रन्थों का अध्ययन ज्ञानवर्धक होने के साथ ही आत्मशान्ति का मार्ग खोजने में उपयोगी हो सके ऐसा है ।
तत्त्वज्ञान के क्षेत्र पर किसी की मालिकी-हक की मुहर नहीं लगी है, इसका किसी ने ठेका नहीं ले रखा है। कोई भी व्यक्ति चिन्तन-मनन द्वारा किसी भी समाज के कहे जानेवाले तत्त्वज्ञान के क्षेत्र को अपना बना सकता है । कुल-धर्म के तत्त्वज्ञान का सम्मान करना और अन्य तत्त्वज्ञान के क्षेत्र पर दृष्टिक्षेप भी न करना यह उदारवृत्ति नहीं कहीं जा सकती । ज्ञान के विकास और सत्य की उपलब्धि का आधार 'सच्चा सो मेरा' इस भावना पर और तदनुसार विशाल स्वाध्याय पर अवलम्बित है । सत्य सर्वत्र अनियन्त्रित और निराबाधरूप से व्यापक है । सत्य किसका ? जो उसे पाए उसका । जो जो वाङ्मय सत्यपूत होता है वह संसारभर की सम्पत्ति है । उसका उपयोग करने के लिये जगत् का कोई भी मनुष्य हकदार है ।
-न्यायविजय
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