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महावीर के उपदेश-वचन
सच्चा यज्ञ
सुसंवुडा पंचहिं संवरेहिं इह जीविअं अणवकंखमाणा । वोसट्टकाया सुई-चत्तदेहा महाजयं जयइ जण्णसिडें ॥
-उत्तराध्ययन १२, ४२. -अहिंसा आदि पाँच यमों से संवृत, वैषयिक जीवन की आकांक्षा नहीं रखनेवाले, शरीर ऊपर की मोह-ममता से रहित तथा कल्याणरूप सत्कर्मों में शरीर का समर्पण करनेवाले सच्चारित्रशाली ऐसा सच्चरितरूप विजयकारक श्रेष्ठ यज्ञ करते हैं। तवो जोई जीवो जोइठाणं जोगा सुआ सरीरं कारिसंगं । कम्मेहा संजमजोगसंती होमं हुणामि इसिणं पसत्थं ॥
-उत्तराध्ययन १२, ४४. -तप ज्योति (अग्नि) है, जीवात्मा अग्निकुण्ड है, मनवचन काय की प्रवृत्ति कलछुल है और अपने कर्मों को (पापों को) जलाना है । यही यज्ञ हैं, जो पवित्र संयमरूप होने से शान्तिदायक तथा सुखकारक है और जिसकी ऋषियों ने प्रशंसा की है । सच्चा ब्राह्मण
जहा पउमं जले जायं नोवलिप्पइ वारिणा । एवं अलित्तं कामेहिं तं वयं बूम माहणं ॥
-उत्तराध्ययन २५, २६. -जिस प्रकार पानी में पैदा हुआ कमल पानी से लिप्त नहीं होता उसी प्रकार जो कामवृत्ति से [वैषयिक वाचना से] लिप्त नहीं होता उसे हम
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