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________________ ८६ जैनदर्शन का रक्षक हूँ, मैं बड़ा धनी या सेठ हूँ, सबल हूँ, मेरा सहायकमण्डल अथवा अनुयायी-वर्ग विशाल है, मेरा कोई क्या कर सकता है ?'- इस प्रकार अहंकार मनुष्य में न आवे इसीलिये अशरण-भावना है। मनुष्य का इस प्रकार का मद या घमण्ड व्यर्थ है, क्योंकि न तो वह मृत्यु के अनिवार्य चंगुल से छूट सकता है । भीषण रोगों के दुःख उसे अकेले को सहने पड़ते हैं । उस समय उसका दुःख कोई पुरुष अथवा प्रियतम व्यक्ति कम नहीं कर सकता । यह अशरणता क्या कम है ? ऐसी भावना का उपयोग अहंकार का त्याग करने में करने का है । दया, परोपकार के सत्कर्म छोड़कर निपट स्वार्थी बन जाना अशरण भावना नहीं है । यद्यपि हम असाध्य स्थिति में से किसी की रक्षा नहीं कर सकते, फिर भी रक्षा करने का यथाशक्ति प्रयत्न करके सहानुभूति तो प्रदर्शित कर सकते हैं और दूसरों की भलाई में, दूसरे के हित-साधन में कमोबेश अवश्य उपयोगी हो सकते है। इस भावना का मुख्य लक्ष्य यही है कि प्रत्येक व्यक्ति को किसी दूसरे की शरण की लालच न रखकर (केवल परमात्मा की ही शरण स्वीकार कर) स्वावलम्बी बनना चाहिए, परोपकार-दया-संयम जैसे सद्गुणरूपी धर्म की शरण स्वीकारनी चाहिए और अच्छे-अच्छे काम करने पर भी, अच्छे गुणों तथा विशिष्ट शक्तियों के होने पर भी अभिमानी न होकर मृदु तथा नम्र बनना चाहिए । (३) संसार-भावना- धनी और निर्धन सब कोई संसार में दःखी हैं ऐसा चिन्तन संसार-भावना है। यह इसलिये आवश्यक है कि मनुष्य संसार के क्षुद्र प्रलोभनों में फंस कर कर्तव्यच्युत न हो । दूर से देखने पर भले ही दूसरे लोग सुखी दिखाई देते हों, परन्तु वास्तविकता तो यह है कि जो सुखी प्रतीत होता है वह अपने आपको सुखी नहीं मानता । अपने पास सुख की सामग्री पर्याप्त मात्रा में होने पर भी मनुष्य उससे सन्तुष्ट नहीं होता । दूसरों की अधिक सम्पत्ति देखकर उसके मन में असन्तोष की आग जलने लगती है । लोभ-तृष्णा के बढ़ते हुए वेग से अधिकाधिक प्रेरित होकर वह परिग्रह के पाप को बढ़ाने में और उससे सम्बद्ध दूसरे अनेक पापों की पुष्टि में ही व्यस्त रहता है । यदि वह ऐसा समझ ले कि इतना पाप करने के बाद भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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