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प्रस्तावना
पदार्थ-तत्त्व का ज्ञान कराए वह दर्शन अथवा दर्शनशास्त्र, अर्थात् दर्शनशास्त्र का विषय पदार्थ-तत्त्व है और धर्मशास्त्र का विषय धर्म है । धर्म का अर्थ है आचरणीय मार्ग । इस प्रकार ये दोनों शास्त्र वस्तुतः पृथक्-पृथक होने पर भी दर्शनशास्त्र में धर्मशास्त्र के विषय का-धर्म का थोड़ा बहुत निरूपण आता ही है, यह दर्शनशास्त्र के अभ्यासी से अज्ञात नहीं है। इसका कारण यह है कि दर्शनशास्त्र के विषय का ज्ञान कर लेने मात्र से जीवन का अर्थ सिद्ध नहीं होता । दर्शनशास्त्र अथवा चाहे जिस विषय का ज्ञान प्राप्त करने के बाद भी धर्म का ज्ञान प्राप्त करने की आवश्यकता रहती ही है, क्योंकि जीवन का कल्याण धर्म के पालन से होता है । अतः धर्म को उसके सच्चे रूप में समझना प्रत्येक व्यक्ति के लिये नितान्त आवश्यक है ।
धर्मशास्त्र के विषय (धर्म) का ज्ञान प्राप्त करने का प्रयोजन निःश्रेयस है, क्योंकि धर्म का सच्चा ज्ञान होने पर ही यथार्थ रूप से धर्म को आचरण में रखा जा सकता है और तभी निःश्रेयस की सिद्धि हो सकती है । परन्तु जब दर्शनशास्त्र के ज्ञान का प्रयोजन भी निःश्रेयस बतलाया जाता है, जैसा कि न्यायदर्शन, वैशेषिकदर्शन आदि दर्शनशास्त्रों के प्रारम्भ में बतलाया गया हैं, तब इसका अर्थ यही है कि धर्मशास्त्र के ज्ञान के साथ दर्शनशास्त्र के ज्ञान का विशिष्ट सम्बन्ध है, जो पहले को सतेज बनाने में उपयोगी हो सकता है। पातञ्जल योगदर्शन को जिस प्रकार दर्शनशास्त्र कह सकते हैं उसी प्रकार धर्मशास्त्र भी कह सकते हैं, क्योंकि उसमें जिस तरह दार्शनिक तत्त्वज्ञान का वर्णन आता है उसी तरह अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, तप, सन्तोष, स्वाध्याय, 'ईश्वरप्रणिधानाद् वा', 'यथाभिमतध्यानाद् वा' आदि धार्मिक
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