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उपदेश भी बिखरा हुआ है । इसी प्रकार धर्मशास्त्र अथवा अध्यात्मशास्त्र के रूप में प्रसिद्ध ऐसे बहुत से ग्रन्थ हैं जो दार्शनिक चर्चाओं से परिपूर्ण होने से दार्शनिकता-मिश्र कहे जा सकते हैं । श्रीहरिभद्रसूरि का 'धम्मसंगहणी' ग्रन्थ अपने नाम से धर्म का संग्रह सूचित करता है, फिर भी वह अधिकांशतः दार्शनिक चर्चाओं से ही भरा है । उनका 'योगबिन्दु' योगविषयक होने पर भी दार्शनिक विचारों से पूर्ण हैं । वस्तुतः धार्मिक और दार्शनिक अथवा आध्यात्मिक और दार्शनिक विषय परस्पर इतने घनिष्ठ सम्बन्ध वाले हैं कि एक के ग्रन्थ में दूसरे का प्रवाह सहजरूप से अथवा अनिवार्यरूप से आ ही जाता है।
प्रस्तुत पुस्तक के 'जैनदर्शन' नाम में जो 'दर्शन' शब्द है वह दार्शनिक तत्त्वज्ञान का सूचक दर्शन शब्द नहीं है, परन्तु धर्मसम्प्रदाय का सूचक 'दर्शन' शब्द है । अतः इस समूचे नाम का अर्थात् 'जैनदर्शन' का अर्थ होता है जैनधर्मसम्प्रदाय की, उसके धार्मिक एवं दार्शनिक विचारों की, जानकारी कराने वाला ।
सम्यग् रूप से पवित्र ज्ञान-सम्पत्ति अथवा शुद्ध विचारधारा प्रदान करने वाली परम्परा को सम्प्रदाय [सम्प्र दाय अर्थात् सम्यग् रूप से प्रदान करने वाला] कहते हैं । इस (सच्चे) अर्थ में दुनिया में सम्प्रदाय एक ही हो ऐसा मान लेने का नहीं है । और शुद्ध ज्ञानमार्ग बतलाने वाले सम्प्रदाय जितने अधिक जगत् को मिले जगत् का उतना अधिक सद्भाग्य समझाना चाहिए । एक से अधिक दीपक जले तो उतना अधिक प्रकाश मिलेगा । परन्तु जब संकीर्ण दृष्टि तथा संकुचित वृत्तिवाले सम्प्रदाय मतान्धता अथवा मतावेश के वशीभूत होकर, रागद्वेष के कालुष्य के आवेश में पागल होकर परस्पर लडते हैं, भिड पड़ते हैं तब वे सम्प्रदाय सम्प्रदाय न रहकर सम्प्रदाह [सम्+प्र+दाह अर्थात् खूब जलानेवाले] बन जाते हैं ।
विश्व में कोई 'सम्प्रदाय' न रहे इसका इतना दुःख नहीं है, परन्तु 'सम्प्रदाह' तो हरगिज़ नहीं चाहिए । और गम्भीर रूप से विचार करनेवाला तो बिना किसी झिझक के यह कह सकता है कि सब धर्म-सम्प्रदायों के पास से दूसरा कुछ ज्ञान मिले या न मिले, सिर्फ सत्य, अहिंसा, मैत्री,
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