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________________ परोपकार, संयम-इतना ही बोध-पाठ अच्छी तरह से मिले तो ऐहिक एवं पारलौकिक सुख के लिये तथा जीवनकल्याण के लिये वह पर्याप्त है । परन्तु जनता के बौद्धिक विकास अथवा ज्ञानविनोद के लिये उन्हें दूसरा कुछ यदि देना हो तो परस्पर झगड़े बिना ही सभ्यता से, मध्यस्थता से, उच्च वात्सल्यभाव से दें। वैदिक एवं श्रमण संस्कृति महावीर और बुद्ध के समय में परस्पर खूब संघर्ष में आई और इन महापुरुषों को उनके प्रखर तपोबल ने अच्छी जय भी दिलाई । बड़े-बड़े वैदिक विद्वानों में से कई ने महावीर के शासन को अपनाया, तो कई ने बुद्ध के शासन को अपनाया । श्रमणसंस्कृति के धुरन्धरों में महावीर और बुद्ध के अतिरिक्त पाँच दूसरे भी थे । इनमें से गोशालक का नाम साहित्य के पन्नों पर अधिक चढ़ा है । इसके नियतिवाद यद भाव्यं तद भविष्यति'-जो होने का है वह होगा] का नाद आज भी कितने ही भारतीयों के हृदय में गूंज रहा है । महावीर के क्रान्तिकारक उपदेश का संक्षिप्त सार इस पुस्तक के १९ वें पृष्ठ से पाठक देख सकते हैं । इस वीतराग सन्त की सम्भावित कार्यरेखा का संक्षिप्त उल्लेख इस प्रकार किया जा सकता है लोगों में प्रचलित अन्धविश्वास को हटाना, हिंसा का वातावरण मिटाना, अहिंसा-मैत्रीभाव का प्रचार करना, विवेकबुद्धि को उद्घाटित करके धर्म एवं दर्शनों के बारे में समन्वयदृष्टि प्रस्तुत करना और सबसे बड़ी बात तो यह कि मनुष्यों को यह बतलाना कि तुम्हारा सुख तुम्हारी मुट्ठी में है, धन-वैभव मेंपरिग्रह में यदि असली सुख देखने का प्रयत्न करोगे तो असफल रहोगे, असली सुख तो स्वयं हमारे भीतर ही है । जनता में सत्य का अधिक प्रचार और प्रसार हो इसलिये इस सन्त ने विद्वद्भाषा समझी जानेवाली संस्कृत का त्याग करके लोक (प्राकृत) भाषा में अपनी उपदेश-गंगा बहाई । [बुद्ध ने भी यही मार्ग लिया था । दोनों की भाषा एवं भाव दोनों में साम्य है । प्राचीन बौद्ध एवं जैन ग्रन्थों में समान रूपरंग का, समान कल्याणसंस्कृति का १. बाकी के चार थे--पूरणकाश्यप, अजितकेशकम्बली, पकुधकात्यायन और संजय बेलट्ठीपुत्त । इनके तथा गोशालक के पन्थ नामशेष हो गए हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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