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________________ पंचम खण्ड ऊपर इस तत्व का ) सिद्धान्त जो कि यथार्थ है, उसका अनुगामी होने पर भी, कहा उस तरह एकात्मवाद की भावना को पुष्ट करता है । अवतारवाद मुक्तस्य भूयो नभवावतारो मुक्तिव्यवस्था न भवावतारे । उत्कृष्टजन्मान उदारकार्यैर्महावतारा उदिता महान्तः ॥ ११ ॥ - मुक्ति की प्राप्ति के पश्चात् मुक्त आत्मा का पुनः संसार में अवतरण नहीं होता । संसार में उसका पुनः अवतरण यदि माना जाय तो मुक्ति की व्यवस्था ही नहीं रहेगी । अतः इस तरह का 'अवतारवाद' युक्तियुक्त नहीं है । महान् पुरुषों का जन्म महान् कार्य करने से महान् समझा जाता है । और इसीलिये, 'अवतार' का अर्थ जन्म होने से वे 'अवतारी' अथवा महान् अवतारी समझे जाते हैं 1 कर्तृत्ववाद सोपाधिरात्मा जगति प्रवृत्तोऽनुपाधिरात्मा न वहेदुपाधिम् । एवं हि कर्तृत्वमकर्तृतां चाश्रित्योद्भवन्तः कलहा व्यपेयुः १२ ॥ ३७७ — उपाधियुक्त आत्मा जगत् में प्रवृति करता है और उपाधिमुक्त शुद्ध (सच्चिदानन्दमय) आत्मा को --- परम आत्मा को उपाधि उठानी नहीं पड़ती । इस तरह कर्तत्व और अकर्तृत्ववाद के कारण होनेवाले कलह शान्त हो जाते हैं । साकार -- निराकारवाद साकारभावे सशरीरतायां निराकृतित्वे च विदेहतायम् । सङ्गच्छमाने परमेश्वरस्य विरोधभावोऽनवकाश एव ॥१३॥ - परमात्मा की शरीरधारी अवस्था में साकारता और विदेह दशा में निराकारता — इस तरह दोनों संगत होने से इनमें विरोध के लिये अवकाश नहीं है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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