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जैनदर्शन
आत्मविभुत्ववादशरीरमानोऽस्ति शरीरधारी विभुः पुनर्ज्ञान विभुत्वयोगात् । इत्थं बुधोऽवैभव-वैभवस्य समन्वयं सत्कुरुते त्वदीयम् ॥१४॥
-शरीर धारी आत्मा स्वशरीप्रमाण है और जब वह व्यापक ज्ञानशक्ति के प्रकाश से प्रकाशित होता है तब इस ज्ञान की विभूता की दृष्टि से वह विभु भी है । इस तरह, तेरे बताए हुए विभुत्व एवं अविभुत्व के समन्वय का बुद्धिमान पुरुष आदर-सत्कार करते हैं । [जैन दृष्टि से आत्मा असंख्येयप्रदेशी होने से उसके प्रदेश किसी समय विशेष में सुविस्तृत होने पर सकललोकव्यापी बनते हैं । इस तरह भी आत्मा विभु (विभुत्वशक्ति का धारक) है ।
शून्य और क्षणिकवादजगत् समग्रं खलु सारहीनमिति प्रबुद्धा निजगाद शून्यम् । विनश्वरं च क्षणिकं तदेव ज्ञात्वाऽऽशय कः कुरूतां विरोधम् ? ॥१५॥
___---'समग्र जगत् असार है' ऐसा समझनेवाले ने उसे 'शून्य' कहा और उसे विनश्वर (क्षणभंगुर) समझनेवाले ने 'क्षणिक' कहा । इस दृष्टि से 'शून्यवाद' और 'क्षणिकवाद' यदि समझा जाए तो इनका विरोध कौन कर सकता है ?
दिगम्बर-श्वेताम्बरवादश्वेताम्बरा दिग्वसनाश्च हन्त ! कथं मिथः स्युः कलहायमानाः ? आश्रित्य नग्नेतरभावभूमि भवत्यनेकान्तधुरन्धरत्वे ॥१६॥
-श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों अनेकान्तवाद के धुरन्धर हैंअनेकान्तवाद का जोरदार प्रचार करनेवाले हैं, तो फिर नग्नता और अनग्नता के बारे में परस्पर कलह क्यों करते हैं ?
कषायमुक्ताववगत्य मुक्तिं बुद्ध्वाऽप्यनासक्तिसमर्थयोगम् । ज्ञात्वा क्रमं साधनसंश्रयं च मुनेः सचेलत्वमपि प्रतीयात् ॥१७॥
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