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पंचम खण्ड
३७९
-कषाय (काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह) से मुक्त होने में ही मुक्ति है ऐसा जाने, 'अनासक्ति' योग के सामर्थ्य का ख्याल आए और साधनविधि की क्रमिकता समझे तो मुनि की सचेलकता भी समझ में आ सकती
किं मुक्तिसंसाधनयोगमार्गों वस्त्रं विनाऽऽविष्कुरुते न मुक्तिम् ?
चेद् वीतरागत्वमुदेति पूर्ण नग्नोऽप्यनग्नोऽपि लभेत मुक्तिम् ॥१८॥ ____-मुक्तिलाभ में परम साधनभूत योगमार्ग वस्त्र न होने पर क्या प्रकट नहीं करता ? वस्त्र न होने पर मुक्तिको प्रकट होने से क्या वह रोकता है ? नहीं । मुख्य मुद्दे की बात तो यह है कि वीतरागता पूर्णरूप से प्रकट होने पर, नग्नावस्था में अथवा अनग्नावस्था में, अवश्य मुक्ति प्राप्ति होती है ।
मूर्तिवादसद्भावना जाग्रति मूर्तियोगाद्, उपासकास्तां तत आश्रयन्ति । योगाप्रमत्त-स्थिरमानसानामावश्यकः स्यानहि मूर्तियोगः ॥२२॥
- भगवान् की मूर्ति का आश्रय लेने से सद्भावना जागरित होती है । अतः उपासक उसका अवलम्बन लेते हैं । योग का अप्रमत्त अवस्था में स्थिरमना मनुष्यों के लिये मूर्तियोग आवश्यक नहीं है । सद्भावनोद्भावनसाधनानां मूर्त्यात्मकं खल्वधिकं य एकम् । श्रयेद् यथाशक्ति विवेकयुक्तं करोति नैवानुचितं स किञ्चित् ॥२३॥
सद्भावना को जागरित करने के साधनों में एक अधिक साधन मूर्तियोग भी है । उसका जो व्यक्ति यथाशक्ति विवेकयुक्त आश्रय लेता है वह क्या कुछ अनुचित करता है ? नहीं ।
कषायरोधाय हि मूर्तियोगः समाश्रयंस्तं तमनाश्रयद्भिः । सार्धं विरोधाचरणं धरेच्चेत् कुतस्तदा तस्य स सार्थकः स्यात् ? ॥२४॥
मूर्तियोग कषायों के उपशमन के लिये है, अतः उसका आश्रय लेनेवाला उसका अवलम्बन न लेनेवाले के साथ (उसका अवलम्बन न लेने के कारण) यदि विरोधभाव धारण करे तो उसका मूर्तियोग कैसे सार्थक हो
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