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जैनदर्शन
अब हम जैन शास्त्रों में प्रतिपादित एक विश्वव्यापी और विश्वोपयोगी महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त को देखें
स्याद्वाद अथवा अनेकान्तवाद :
किसी वस्तु का भिन्न-भिन्न दृष्टिबिन्दु से अवलोकन करना अथवा कथन करना यह स्याद्वाद का अर्थ है । इसे अनेकान्तवाद भी कहते हैं । एक ही वस्तु में भिन्न-भिन्न दृष्टिबिन्दुओं से संगत होनेवाले भिन्न-भिन्न और विरुद्ध दिखाई देनेवाले धर्मों के प्रामाणिक स्वीकार को स्याद्वाद कहते हैं । जिस प्रकार एक ही पुरुष में पिता-पुत्र, चाचा-भतीजा, मामा-भानजा, श्वसुर - दामाद आदि परस्पर विरुद्ध प्रतीत होनेवाले व्यवहार, भिन्न-भिन्न सम्बन्ध की भिन्नभिन्न अपेक्षा से संगत होने के कारण, माने जाते हैं, उसी प्रकार एक ही वस्तु में, स्पष्टीकरण के लिये एक विशेष वस्तु को लेकर कहें तो एक घट में नित्यत्व और अनित्यत्व आदि विरुद्ध रूप से भासित होनेवाले धर्म यदि भिन्नभिन्न अपेक्षादृष्टि से संगत होते हों तो उनका स्वीकार किया जा सकता है । इस तरह, एक वस्तु में भिन्न-भिन्न दृष्टिबिन्दुओं से संगत हो सकें ऐसे भिन्नभिन्न धर्मों के समन्वय करने को स्याद्वाद अथवा अनेकान्तवाद कहते हैं ।
एक ही पुरुष अपने पिता की अपेक्षा से पुत्र और अपने पुत्र की अपेक्षा से पिता, अपने भतीजे और भानजे की अपेक्षा से चाचा और मामा तथा अपने चाचा और मामा की अपेक्षा से भतीजा और भानजा, अपने श्वसूर की अपेक्षा से दामाद और अपने दामाद की अपेक्षा से श्वसुर बनता है और इस प्रकार इन सम्बन्धों को एक ही व्यक्ति में भिन्न-भिन्न सम्बन्धों की भिन्नभिन्न अपेक्षाओं से स्वीकार करने के लिये सब तैयार हैं, इसी प्रकार नित्यत्व
भिज्ञा- तर्क- अनुमान-आगम रूप से जो विभागीकरण किया है यह उनका बुद्धिकौशल है, जो आज तक समग्र जैनाचार्यों को सादर स्वीकृत है ।
सिद्धसेन दिवाकर का 'न्यायावतार' तार्किक संस्कार से बलाढ्य बनते जाते वातावरण की उपज है । 'न्यायावतार' में आया हुआ 'न्याय' शब्द मुख्यतः अनुमान का सूचक है; क्योंकि अनुमान के अवतरण ने उस द्वात्रिंशिकात्मक छोटे से ग्रन्थ में बहुत अधिक जगह रोकी है । इस न्यायावतार में प्रत्यक्ष - अनुमान-आगम इन तीन प्रमाणों की चर्चा आती हैं ।
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