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________________ पंचम खण्ड न पिलाकर मरने देना यह कैसी धर्मबुद्धि ? रात्रि में चतुर्विध आहार [ खान-पान, पानी] का त्याग करने वाले मनुष्य के शरीर में किसी कारणवश प्राणान्तक सख्त गर्मी अथवा अन्य रोग व्याप्त हो जाय और उसकी बेहोश जैसी हालत हो जाय तब भी — ऐसी हालत में भी घृतादि खिलानेरूप योग्य औषधोपचार न करके उसे मरने देना यह कैसी धर्मबुद्धि ? इस प्रसंग पर एक किस्सा याद आता है । एक भले- भोले ग्रामीण ने शहर में से आए हुए एक सज्जन सेठ का खूब आतिथ्य किया: सर्दी की मौसम, पोस महीना, जमीन पर पानी छींटकर सेठ को खाने के लिये बिठाया । खाने में श्रीखण्ड - पूरी तथा बरफ का ठण्डा पानी और ऊपर से पंखे का मन्द मन्द शीतल पवन ! ग्रामीण शेठ से कहता है कि, आपके जैसे बड़े आदमी की सेवा मेरे जैसा क्या कर सकता है ? इस पर सेठ कहता है : भाई, तेरी भक्ति तो बहुत है, परन्तु मेरा जीव बहुत कठोर है कि किसी तरह निकलता ही नहीं ! [ इस उदाहरण पर से जाना जा सकता है कि अविवेकी भक्ति अकल्याणरूप होती है ।] अब उत्सर्ग-अपवाद के बारे में भी तनिक देखें । ३९९ उत्सर्ग - अपवाद की बात द्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव की ही दृष्टि है । यह दृष्टि वस्तु का सामायिक यथायोग्य दर्शन करने में जितनी उपयोगी है उतनी ही कृत्य, अकृत्य और उनके परिणाम का विचार करने में— कार्य की कर्तव्यता अथवा अकर्तव्यता का निर्णय करने में भी उपयोगी है । सामान्य स्थिति - संयोगों में वर्तनसम्बन्धी जो सर्वसाधारण नियम स्थापित किए गए हैं उन्हें उत्सर्गमार्ग कहते हैं और परिवर्तित स्थिति संयोगों में जो मार्ग ग्रहण किया जाता है उसे अपवादमार्ग कहते हैं । अमुक अवसर पर उत्सर्गमार्ग ग्रहण करना चाहिए अथवा अपवादमार्ग का अवलम्बन लेना चाहिए इसका निर्णय करने में उस समय के द्रव्य-क्षेत्रकाल-भाव की विचारणा आवश्यक बनती है । 'द्रव्य' अर्थात् पात्र, 'क्षेत्र' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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