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________________ ३१६ जैनदर्शन विचारों में विरोध मालूम पड़ता है । परन्तु उन विचारों पर सुयोग्य समन्वयदृष्टि रखकर भिन्न-भिन्न प्रतीत होनेवाले विचारों में भी रहा हुआ साम्य देखा जा सकता है । प्रमाण का विवेचन संक्षेप में हो गया । वस्तु का स्वरूप समझने में यदि भूल या भ्रम हो अर्थात् उसका यथास्थित स्वरूप समझने के बदले उलय स्वरूप समझ लिया जाय तो उस वस्तु के बारे में जो प्रवृत्ति होती है वह न तो उपयुक्त ही होती है और न सफल ही होती है । रस्सी को यदि सर्प समझ लिया जाय तो इस भ्रम से, कोई भी वास्तविक कारण न होने पर भी, भयवश शरीर कांपने लगता है । मृगजल को सच्चा जल मानकर प्यास बुझाने की इच्छा से उसके पीछे दौड़ा जाय तो ऐसा प्रयत्न निष्फल ही जायगा और अन्त में निराशा ही मिलेगी । भ्रमवश मित्र को शत्रु अथवा शत्रु को मित्र मान लिया जाय तो उनके साथ जो प्रवृत्ति होती है वह उपयुक्त न होकर विपरीत ही होती है। ये सब भ्रमजन्य प्रवृत्ति के उदाहरण हैं । भ्रम अर्थात् उलटी समझ, अतः इसका ज्ञान में- यथार्थ ज्ञान में समावेश नहीं होता । तृतीय खण्ड के १५ वें लेख में यह बताया गया है कि मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्याय और केवल इन पाँच ज्ञानों में से अन्तिम तीन ज्ञान प्रत्यक्ष ( पारमार्थिक प्रत्यक्ष ) है, जबकि मति और श्रुत ज्ञान परोक्ष हैं । श्रुतज्ञान, परोक्ष प्रमाण के एक भेद 'आगम' का निर्देशक है । मतिज्ञान का एक विभाग, जो इन्द्रिय द्वारा होनेवाले रूपदर्शनादि ज्ञानों का है, वह (इन्द्रियरूप परनिमित्त से उत्पन्न होता है, अतः वस्तुतः परोक्ष होने पर भी) 'सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष' कहलाता है । और स्मरण तर्क, अनुमान आदिरूप मतिज्ञान का दूसरा विभाग तो 'परोक्ष प्रमाण' में ही अन्तर्भूत है । इस प्रकार मति श्रुतादिरूप ज्ञानपंचक के प्राचीन विभाग के साथ प्रत्यक्ष परोक्षरूप दो प्रकार के प्रमाणोंवाले विभाग का सामञ्जस्य स्थापित हो जाता है । १. अनुयोगद्वार सूत्र (पत्र २११ ) में प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम इस प्रकार चार प्रमाणों का उल्लेख है । वहाँ इन प्रमाणों की विचारणा न्याय (गौतम) दर्शन की प्रमाण - विचारणा जैसी देखने में आती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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