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जैनदर्शन
च' अर्थात् द्वेषवृत्ति से रहित, सर्व जीवों की ओर मैत्रीभाव रखनेवाला तथा करुणापूर्ण मानस स्वयमेव दान- भावना का बहता झरना है। ऐसा मानस वाणी एवं शरीर द्वारा यथाशक्ति दानधर्म के प्रवाह को सतत प्रवाहित रखता है ।
दान चाहे शरीरश्रम से दिया गया हो अथवा मानसिक श्रम से दिया गया हो, शिक्षण संस्कार अथवा सहानुभूति के रूप में दिया गया हो या धन अथवा अन्य उपयोगी वस्तु का किया गया हो, उसका समावेश त्याग में होता है यह ऊपर कहा ही जा चुका है । त्याग के तीन उद्देश शक्य हैं
(१) संयममूलक त्याग अर्थात् जो संयम में समाविष्ट होनेवाले पाँच व्रतों के पालन में उपकारक हो । व्यर्थ मौजमजा की चीजें जो सात्त्विक अथवा निर्दोष आनन्द देने के बदले शरीर के लिये हानिकार हों, मन को बिगाडने वाली हों, धन की निरर्थक बरबादी करनेवाली हों और तृष्णा एवं आसक्ति को बढानेवाली हों उनका त्याग संयममूलक त्याग है।
___ महारम्भ से मिलों में बने हुए आकर्षक तथा बारीक वस्त्रों के बदले अल्पारम्भ से बने हुए हाथकताई और हाथ बुनाई की खादी जैसे वस्त्र का उपयोग करने में,
पञ्चेन्द्रिय मछलियों को चीर कर निकाले गए मोती के आभूषण तथा चतुरिन्द्रिय कीडों का नाश करके बनाए गए रेशमी वस्त्रों का उपयोग न करने में,
"गोयमा ! जे गिलाणं पडिचर से मं दंसणेण पडिवज्जइ । जे मं दंसणेणं पडिवज्जइ से गिलाणं पडिचरइ ॥" अर्थात्-हे गौतम ! जो बीमार-दुखियों की सेवा करता है वह दर्शन (सम्यग्दर्शन) द्वारा मेरी उपासना करता है और जो दर्शन (सम्यग्दर्शन) द्वारा मेरी उपासना करता है वह बीमार-दुखियों की सेवा करता है । “They asked a great one, How many ways are there to God ? He said : There are as many ways as there are atoms in the universe, but the best and shortest is service.” अर्थात्-लोगों ने किसी सन्त से पूछा : 'ईश्वरप्राप्ति के कितने मार्ग है ?" सन्त ने कहा : जगत् में जितने अणु हैं उतने, परन्तु सबसे अच्छा और सबसे छोटा मार्ग सेवा है।"
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