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________________ प्रथम खण्डक बन्द चतुर्थ खण्ड २७९ प्रथम खण्ड के 'बन्ध' शीर्षक के नीचे किए गए विवेचन में कर्मबन्ध के प्रकृति, स्थिति आदि जो चार भेद बतलाए हैं उन्हें समझाने के लिये मोदक का दृष्टान्त दिया जाता है । जिस प्रकार वायुनाशक वस्तुओं से बना हुआ मोदक वायु को शान्त करता है, पित्तनाशक चीजों से बना हुआ मोदक पित्तशामक होता है और कफनाशक वस्तुओं का बना हुआ मोदक कफ का उपशामक होता है, कोई मोदक चार दिन तक खराब नहीं होता तो कोई आठ दिन तक; किसी मोदक में कटुता कम होती है तो किसी में अधिक; तथा कोई मोदक पावभर का होता है तो कोई आधे सेर का, अर्थात् भिन्न-भिन्न मोदकों का पौद्गलिक परिमाण कमावेश होता है; इसी प्रकार कर्मों में भी ऊपर कहा उस तरह, किसी का स्वभाव ज्ञान को तथा किसी का दर्शन को आवृत करने का होता है तो किसी का सुख-दुःख का अनुभव कराने का होता है । इसी प्रकार कर्मों की जीव के साथ चिपके रहने की कालमर्यादा भी अलग-अलग होती है । शुभाशुभ (मधुर अथवा कटु) फल देने की शक्तिरूप रस भी किसी कर्म में तीव्र तो किसी में मन्द होता है [तीव्र मन्दता में भी नानाविध तारतम्य होता है] और भिन्न-भिन्न कर्मों के परमाणुसमूह भी न्यूनाधिक होते हैं । विपाकोदय से ही कर्म झाडे जा सकते हैं, दूसरी तरह नहीं-ऐसा नियम यदि माना जाय तो किसी भी जीव को मोक्ष नहीं मिल सकेगा, क्योंकि उसी भव में युक्त होनेवाले जीव को भी सत्ता में तो असंख्येयभवोपार्जित कर्म होते हैं और वे कर्म नानाविध अध्यवसायों द्वारा बँधे हुए होने से नरकादि अनेक गतियों के कारण होते हैं । अतः यदि वे सब कर्म विपाकोदय द्वारा ही विनष्ट करने के हों तो उस एक और अन्तिम भव में नानाविध भवों का अनुभव करना पड़ेगा। परन्तु यह तो असम्भव हैं, क्योंकि एक मनुष्यभव में नारक आदि अनेक अन्य भवों का अनुभव नहीं हो सकता । अब यदि वह नाना गतियों के कारणभूत कर्म की नाना गतियों में जाकर क्रमशः विपाकरूप से अनुभव करने लगे तो पुनः नाना गतियों के कारणभूत कर्म का बन्ध होने का और पुनः नाना भवों में भ्रमण होने का, और फिर नाना गतियों के कारणभूत कर्म बँधने के । इस प्रकार कर्मबन्ध और भवभ्रमण की परम्परा निरन्तर चलती रहेगी और उसका अन्त कहीं पर भी नहीं आयगा । इस प्रकार मोक्ष-वस्तु अशक्य ही बन जायगी । (देखो विशेषावश्यकभाष्य गाथा २०५२-५३ की वृत्ति) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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