________________
५८
जैनदर्शन
रही हुई - रखी गई छूट का संक्षेप करना इस व्रत का अर्थ है । इसमें विरति की अभिवृद्धि का मुख्य तात्पर्य है ।
११. पौषध व्रत :
धर्म का पोषण करनेवाला होने से यह व्रत 'पौषध' व्रत कहलाता है । उपवास का एकाशन करके चार अथवा आठ प्रहर के लिये अथवा इससे अधिक समय तक साधुजीवन की भाँति धर्मपरायण रहने का नाम पोषध व्रत है । सब प्रकार की सांसारिक उपाधियों से दूर हट कर सर्वविरति (साधु) धर्म की वानगी का मधुर रसास्वाद लेने के लिये यह पौषध व्रत है । इसमें सम्पूर्ण ब्रह्मचर्य के साथ यथाविधि धर्मक्रिया की जाती है और क्रियाविधि से बचा हुआ समय स्वाध्याय अथवा आत्महित की ज्ञानगोष्ठी में व्यतीत किया जाता है ।
१२. अतिथि संविभाग :
आत्मा की उच्च प्रकार की उन्नति की साधना के लिये जिन्होंने गृहवास का त्याग करके विरतिपरायण संन्यास का मार्ग स्वीकार किया है उन अतिथि अर्थात् मुमुक्ष मुनिमहात्माओं की तथा परोपकारपरायण लोकसेवक सज्जनों की आवश्यकताओं को पूर्ण करना और दीन-दु:खियों को योग्य सहायता करना इस व्रत का तात्पर्य है ।
इन बारह व्रतों में प्रारम्भ के पाँच व्रत 'अणुव्रत' कहलाते हैं, क्योंकि साधु - जीवन के महाव्रतों के आगे ये व्रत अणु अर्थात् अल्प हैं । इनके बाद के तीन व्रत 'गुणव्रत' कहलाते हैं, क्योंकि ये तीन व्रत अणुव्रतों के गुणरूप अर्थात् उपकारक हैं— पोषक हैं । इनके बाद के अवशिष्ट चार व्रत 'शिक्षाव्रत' कहलाते हैं । शिक्षाव्रत का अर्थ है अभ्यास करने का व्रत |
इन व्रतों के विषय में उपयोगी विचार आगे दूसरे खण्ड के 'गृहस्थों का आचार' शीर्षक लेख में प्रकट किये गए हैं ।
बारह व्रत ग्रहण करने का सामर्थ्य यदि न हो तो जितने शक्य हों उतने व्रत लिये जा सकते हैं ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org