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द्वितीय खण्ड
सम्यक्त्व :
अब हम धर्मसिद्धि के मूलाधाररूप 'सम्यक्त्व' को देखें । सम्यक्त्व का अर्थ है विचारपूत आत्मश्रद्धा । सम्यक्त्व का शब्दार्थ है सम्यक्पना अथवा अच्छाई । परन्तु प्रस्तुत में अच्छाई क्या है ? सच्चाई अथवा निर्मलता । किसकी सच्चाई अथवा निर्मलता ? दृष्टि की । अतः यहाँ पर 'सम्यक्त्व' शब्द दृष्टि की सच्चाई अथवा दृष्टि की निर्मलता में रूढ़ है, अर्थात् सच्ची अथवा निर्मल तत्त्वदृष्टि को 'सम्यक्त्व' कहते हैं । तत्त्वदृष्टि का क्या अर्थ है ? यह भी यहाँ पर स्पष्ट करना आवश्यक है । तत्त्वदृष्टि अर्थात् आत्मकल्याण की तत्त्वविषयक दृष्टि । यह दृष्टि जब सच्ची अथवा निर्मल बनती है तब उसे 'सम्यक्त्व' कहते हैं । इस कल्याणी दृष्टि के संगम से धर्मान्धता, मत-दुराग्रह तथा संकुचित साम्प्रदायिकता दूर हो जाती है और काषायिक भावावेश ठण्डा पड़ जाता है । सम्यग्दृष्टि शुद्ध जिज्ञासुता को प्रकट करती है और इसके प्रकाश में वस्तु एकांगी नहीं किन्तु अनेकांगी प्रतीत होती है । इससे समन्वयदृष्टि खिलती है जिसके परिणामस्वरूप आत्मा का विवेकपूत समभाव विकासगामी बनता है ।
सम्यक्त्व का दूसरा नाम 'सम्यग्दर्शन' है । यह भी इसी अर्थ का द्योतक है। इन दोनों शब्दों का सुगम अर्थ सच्ची श्रद्धा होता है । सच्ची श्रद्धा का अर्थ अन्ध-श्रद्धा नहीं किन्तु विवेकपूत श्रद्धा होता है। अन्ध-श्रद्धा अन्धी अर्थात् विचाररहित-कार्यकारणभाव के नियम की समझ से शून्य होती है, जबकी विवेकपूत श्रद्धा में कार्यकारणभाव के याथार्थ्य का भान होता है । इस युक्तिक्षम एवं न्यायपूत श्रद्धा में बुद्धिविरुद्ध तत्त्व न तो स्थान ही ले पाता
और न ही टिकने पाता है। ऐसी श्रद्धा एक प्रकार का विशिष्ट बल रखनेवाली दृष्टि है । कर्तव्य-अकर्तव्य अथवा हेयोपादेय-विषयक विवेकदृष्टि का सामर्थ्य, जो कि कल्याण-साधन के सन्मार्ग में निश्चल श्रद्धारूप-अटल विश्वासरूप है, प्रकट होते ही थोड़ा सा भी ज्ञान, अल्प भी श्रुत, साधारण बुद्धि अथवा परिमित अभ्यास 'सम्यग्ज्ञान' बन जाता है । इस पर से समझ में आ सकता है कि विवेकदृष्टिरूप तत्त्व-श्रद्धा ही 'सम्यक्त्व' अथवा 'सम्यग्दर्शन' है जिसके सम्यक्पने पर ज्ञान का सम्यक्पना अवलम्बित है । ज्ञान से वस्तु का बोध
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