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________________ जैनदर्शन होता है, उसमें विवेकदृष्टि पावित्र्य लाती है और इन दोनों के-सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान आधार पर चारित्र (सच्चे चारित्र) का निर्माण होता है, जिससे मोक्ष की प्राप्ति होती है। यही बात महर्षि उमास्वातिरचित तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम सूत्र 'सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः' में निर्दिष्ट है । ऊपर के उल्लेख से यह समझ में आ सकता है कि सम्यग्दर्शन (सम्यग्दृष्टि) चारित्र की मूलभूत एवं मजबूत नींव है, क्योंकि अच्छी अथवा सच्ची दृष्टि के ऊपर ही अच्छी अथवा सच्ची जीवनचर्या के निर्माण का आधार है । इसीलिये कहा है 'जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि ।' ज्ञान किंवा बुद्धि का विकास चाहे जितना अधिक क्यों न हो परन्तु यदि दृष्टि खराब हो तो उस ज्ञान अथवा बुद्धि का दुरुपयोग ही होने का, परन्तु यदि दृष्टि शुभ हो तो थोड़े भी ज्ञान का सदुपयोग ही होगा । ज्ञान के उपयोग को प्रेरित करनेवाली वस्तु दृष्टि ही है । अतः उसकी अच्छाई अथवा बुराई ही मुख्य मुद्दे का प्रश्न है । दृष्टि अप्रशस्त होने पर ज्ञान एवं आचरण दोनों अप्रशस्त बन जाते हैं और उसके प्रशस्त होने पर (अर्थात् सम्यग्दृष्टि अथवा सम्यग्दर्शन होने पर) ज्ञान एवं चारित्र दोनों प्रशस्त बन जाते हैं । इसीलिये दृष्टि का प्राथम्य और प्राधान्य है। यही कारण है कि उपर्युक्त आर्षसूत्र में जिन तीन को मोक्ष का मार्ग कहा है उनमें 'सम्यग्दर्शन' को सर्वप्रथम रखा गया है । जिससे यही सूचित होता है कि दर्शन (दृष्टि) के अच्छे होने पर ही ज्ञान एवं चारित्र का अच्छा होना अवलम्बित है । सम्यग्दर्शन अथवा सम्यक्त्व शास्त्राभ्यास से ही उपलब्ध होता है ऐसी बात नहीं है । किसी भी देश अथवा जाति का अथवा स्थूल बुद्धि का निरक्षर मनुष्य' भी यदि मृदु और ऋजु आत्मा हो तो वह सम्यक्त्व प्राप्त कर सकता है । कोई कोई सज्जन तो परोपदेशादि बाह्य निमित्त के बिना ही आत्मस्वभावतः उसे प्राप्त करते हैं-उनकी ऐसी आत्मिक योग्यता होने से अथवा यों कहिए कि उनको आन्तरिक विचारदृष्टि के बल से; जबकि दूसरे १. कोई तिर्यंच योनि का भाग्यशाली पशु भी इसे प्राप्त करता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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