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जैनदर्शन फल प्रत्यक्ष हैं, फिर भी यदि जिन्दगी के दुःखों का अन्त न आए तो भी इससे जन्मान्तरवादी हताश नहीं होता । आगामी जीवन की श्रद्धा उसे कर्तव्यमार्ग पर स्थिर रखती है । वह समझता है कि 'कर्तव्यपालन कभी निष्फल नहीं जाता; वर्तमान जीवन में नहीं तो आगामी जन्म में उसका फल मिलेगा ही । इस प्रकार परलोक के श्रेष्ठ लाभ की भावना से मनुष्य सत्कर्म में प्रवृत्त रहता है । उसे मृत्यु का भय भी नहीं रहता, क्योंकि आत्मा को नित्य और अमर समझनेवाला मनुष्य मृत्यु को शरीर-परिवर्तन के अतिरिक्त दूसरा कुछ भी नहीं समझता । वह तो मृत्यु को एक कोट उतारकर दूसरा कोट पहनने जैसा मानता है, और सत्कर्मशाली के लिये वह प्रगतिमार्ग का द्वार है ऐसा वह समझता है । इस प्रकार मृत्यु के भय पर विजय प्राप्त करने से और जीवनप्रवाह निरन्तर अखण्डित रूप से बहता हुआ, अनन्त और सदा सत् है ऐसा समझने से जीवन को उत्तरोत्तर अधिक विकसित बनाने की विवेकसुलभ भावना के बल पर उसकी कर्तव्यनिष्ठा विशेष बलवती बनती है। आत्मा की नित्यता समझनेवाला ऐसा भी समझता है कि 'दूसरे का बुरा करना वस्तुतः स्वयं अपना बुरा करने जैसा है । वैर से वैर बढता है । किए कर्मों के बन्ध अनेक जन्मों तक जीव के साथ लगे रहते हैं और अपना फल कभी-कभी तो लम्बे अर्से तक चखाते हैं ।' इस तरह समझनेवाला आत्मवादी मनुष्य सब जीवों को अपने आत्मा के सामने समझकर सब के साथ मैत्रीभाव रखता है । मैत्री के प्रकाश में उसका राग-द्वेष का अन्धकार कम होता जाता है । इस प्रकार उसके समभाव का संवर्धन होता है और उसका विश्वप्रेम विश्ववात्सल्य प्रतिदिन विकसित होता जाता है । देश, जाति,वर्ण अथवा सम्प्रदाय के भेदों के बीच भी उसका दृष्टिसाम्य (दृष्टि में समभाव) अबाधित ही रहता है । वह समझता है कि 'मरने के बाद आगमी जन्म में मैं कहाँ, किस भूमि पर, किस वर्ण में, किस जाति में, किस सम्प्रदाय में, किस वर्ग में और किस स्थिति में पैदा होऊंगा इसके बारे में क्या कहा जा सकता है ? अतः किसी देश, जाति, वर्ण अथवा सम्प्रदाय के तथा गरीब अथवा निम्न पंक्ति के समझे जनेवाले मनुष्य के साथ असद्भाव रखना, उसे तुच्छ समझना, उसकी ओर तुच्छ दृष्टि से देखना अथवा मद-अभिमान या द्वेष करना उचित नहीं है।' इस प्रकार आत्मवाद के सिद्धान्त से निष्पन्न होनेवाले
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