SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 326
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थ खण्ड २९५ संबंध न होने से ) भले कहा जाय, परन्तु वे निर्मूल हो ऐसा तो नहीं कहा जा सकता । उनका कोई-न-कोई मूल -कारण तो होना ही चाहिए । अकस्मात् भी कस्मात्-किससे--क्यों ? इस दुर्गम और अज्ञेय वस्तु की खोज का विचार करने पर अदृष्ट(कर्म) के नियम तक पहुंचना पड़ता है । संसार में कोई मनुष्य यदि ऐसा विचार करे कि आत्मा आदि कुछ भी नहीं है, जितने दिन मैं इस जीवन में अमन-चैन से गुजारूँ उतने ही दिन मेरे हैं, इस जिंदगी की समाप्ति के बाद मेरा यह देह पंचभूतों में मिल जायगा और 'मैं' जैसा कोई व्यवहार नहीं रहेगा तो फिर मैं जीवदया पालूँ या जीवहिंसा करूँ, सत्य बोलूँ या झूठ बोलूँ, संयमित रहूँ या उच्छंल बनूँ अथवा मन में जो आए वैसा करूँ तो इसमें हर्ज क्या है ? क्योंकि मेरे किए कर्मों का दण्ड अथवा पुरस्कार मुझे देनेवाला कोई है ही नहीं । परन्तु ऐसा विचार सर्वथा भ्रान्त है । इस जीवन में यदि कोई अनीति-अनाचार, चोरी-डकैती अथवा किसी की हत्या आदि करके मालदार हो जाय और गुलछर्रे उडाए तो उसके इन दुष्कृत्यों के उत्तरदायित्व से वह दूर नहीं हो सकता, उसका उत्तरदायित्व नष्ट नहीं हो जाता । सज्जनों की दुःखी दशा और दुर्जनों की सुखी दशा के पीछे ऐहिक परिस्थिति के अतिरिक्त यदि कोई 'अदृष्ट कारण न हो और उनकी वैसी दशा का हिसाब यहीं पर चुकता हो जाता हो, उसका अनुसन्धान आगे न चलता हो तो आध्यात्मिक जगत् में अथवा सृष्टि की व्यवस्था में यह कम अन्धेर नहीं समझा जायगा । कर्म का नियम एक ऐसा सुनिश्चित एवं न्याय्य विश्वशासन है कि वह प्राणीमात्र के कार्य का योग्य उत्तर देता है । इसीलिये मानवसमाज को अच्छा बनाने में कर्मवाद का शासन, जो कि पुनर्जन्मवाद का स्त्रष्टा भी है; अत्यन्त उपयोगी है । इस शासन का एकमेव तात्पर्य खराब काम छोड़कर अच्छे काम करने में ही रहा हुआ है। इसी के परिणामस्वरूप उत्तरोत्तर विकास साधकर पूर्णता के शिखर पर पहुंचा जा सकता है ।। ____ जन्मान्तरवाद के सिद्धान्त से परोपकार-भावना पुष्ट होती है और कर्तव्यपालन में तत्परता आती है । परोपकार अथवा कर्तव्यपालन के लौकिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy