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तृतीय खण्ड
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जीवों में ही होते हैं और वह भी सब छद्मस्थ जीवों में । क्योंकि सब छद्मस्थ प्राणियों में क्षायोपशमिक तथा औदयिक भाव होते ही हैं । भावेन्द्रिय अथवा मति श्रुत (सत् या असत्) ये क्षायोपशमिक भाव और गति, लेश्या आदि औदयिक भाव समग्र छद्मस्थ जीवों में रहते हैं । यह त्रिकसंयोग ही (तीन ही भाव ) जिस प्रकार सब गतियों के समग्र मिथ्यात्वी जीवों में होता है उसी प्रकार सब गतियों के सब क्षायोपशमिक सम्यक्त्वधारक जीवों में भी होता है । क्षायोपशमिक सम्यक्त्व और क्षायोपशमिक चारित्र – उभय के धारक तिर्यंच' और मनुष्यों में भी यह त्रिकसंयोग ही (ये तीन नहीं भाव) होता है ।
इन तीनों भावों के अतिरिक्त अन्य भी भाव किसी छद्मस्थ में हो सकते हैं । जैसे कि, औपशमिक सम्यक्त्व धारक अथवा औपशमिक सम्यक्त्व एवं चारित्र उभय के धारक को प्रस्तुत त्रिकसंयोग के अतिरिक्त औपशमिक भाव भी होता है । जो उपशम श्रेणी बिना के क्षायिक सम्यक्त्व धारक छद्मस्थ हैं तथा जो क्षायिक सम्यक्त्व और चारित्र इन दोनों के धारक छद्मस्थ हैं उन्हें प्रस्तुत त्रिकसंयोग के अतिरिक्त क्षायिक भाव भी होता है । औपशमिक सम्यक्त्व चारों गतियों के प्राणियों में शक्य है, जबकि औपशमिक सम्यक्त्व और चारित्र उभय के धारक तो केवल मनुष्य ही होते हैं । इस प्रकार के दोनों वर्गों में औपशमिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक ये चार ही भाव हो सकते हैं । क्षायिक सम्यक्त्व भी चारों गतियों में सम्भव है । अतः देव, नरक और तिर्यंच इन तीन गतियों के क्षायिकसम्यक्त्वधारियों में तथा उपशमश्रेणी बिना के अथवा ग्यारहवें गुणस्थान सिवाय के क्षायिकसम्यक्त्वी छद्मस्थ मनुष्यों में तथा क्षायिक सम्यक्त्व और चारित्र उभय के धारक छद्मस्थों में क्षायिक, क्षायोपश्मिक, औदयिक और पारिणामिक ये चार ही भाव होते हैं ।
औपशमिक - क्षायिक- क्षायोपशमिक-औदयिक-पारिणामिक ये पाँच भाव एक जीव में प्राप्त हो सकते हैं। जो जीव क्षायिक सम्यक्त्वी होने के
१. संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यंचों में 'देशविरति' (पञ्चम) गुणस्थान तक का और देवों व नारकों में चतुर्थ गुणस्थान तक का ही सम्भव है ।
२. नवें - दसवें गुणस्थान में औपशमिक चारित्र न मानने की दृष्टि से ।
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