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जैनदर्शन साथ ही साथ उपशमश्रेणी वर्ती (एकादशगुणस्थानवर्ती') होता है उसमें ये पाँच भाव एक साथ होते हैं ।
___ कर्म का यथासम्भव उदय, क्षय, उपशम और क्षयोपशम द्रव्यक्षेत्रकाल-भाव और भाव के कारण होता है ।
___ इस बारे में प्रथम असातावेदनीय कर्म के उदय का विचार करें । असातावेदनीय कर्म सर्प, विष, कण्टक, खराब अशन-पान आदि द्रव्य के कारण, खराब घर, मकान, स्थान अथवा कारावास जैसे क्षेत्र के कारण. अशान्तिकारक अथवा रोगिष्ठ ऋतु जैसे काल के कारण, प्रकृति, चिन्तार्त स्वभाव, वार्धक्य अथवा रोग जैसे भाव के कारण तथा तिर्यंच अथवा दद्धि मनुष्य आदि गतिरूप भव के कारण उदय में आता है ।
अब इसी कर्म के क्षय का विचार करें । इसका क्षय सद्गुरुचरणादिरूप द्रव्य के कारण, पवित्र तीर्थादिरूप क्षेत्र के कारण, अनुकूल समयरूप काल के कारण सम्यग्-ज्ञान चारित्ररूप भाव के कारण और योग्य मानवजन्मरूप भव के कारण होता है ।
मिथ्यात्वमोहनीय कर्म को लेकर सोचें । इस कर्म का उदय अज्ञानी, दुर्मति, दुर्जनरूप द्रव्य के आश्रय से, संस्कारहीन क्षेत्र के आश्रय से, कुवातावरण से दूषित अथवा कुसमयरूप काल के आश्रय से, असदुपदेश अथवा दुःसंग जैसे भाव के आश्रय से और असंस्कारी जन्मरूप भाव के आश्रय से होता है।
इस कर्म के क्षय-क्षयोपशम-उपशम उत्तम संयोगरूप द्रव्य के आश्रय से, संस्कारसम्पन्न क्षेत्र के आश्रय से, अनुकूल समयरूप काल के आश्रय से, सम्यग्ज्ञान-सदाचरणरूप भाव के आश्रय से तथा योग्य जन्मरूप भाव के आश्रय से होते हैं ।
उदय और क्षय सभी कर्मों का होता है । क्षयोपशम केवल घाती
१. ग्यारहवें उपशान्तमोह गुणस्थानवाले को ही वस्तुत: औपशमिक चारित्र प्राप्त होता है इस
दृष्टि से ।
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