________________
पंचम खण्ड
३८५ है अथवा कट जाती है कि उससे दुःख उठाना पड़ता है । असावधान रहने का दोष कोई न दिखला सके ऐसी हालत में भी अकस्मात् का शिकार वह हो जाता है । अमुक स्थान पर जाना अथवा होना और अनिष्ट दुर्घटना का शिकार बनना, अथवा समझदार होने पर भी उससे उलटी प्रवृत्ति का हो जानाऐसा बहुत बार होता है । वैयक्तिक अथवा सामूहिक चित्र-विचित्र घटनाएँ घटित होती है, जिन्हें हम 'दैवाधीन' कहते हैं। उन पर से कर्म के अस्तित्व का ख्याल आ सकता है । ४. उद्यम
उद्यम का महत्त्व स्वीकार किए बिना चल नहीं सकता । केवल कर्म को ही प्रधान माननेवाले को भी जानना चाहिए कि कर्म को उत्पन्न करनेवाला कौन है ? जीव स्वयं । स्वयं जीव ही अपने व्यापार से कर्म बाँधता है, कर्मों के साथ वह बँधता है। कर्म के उदय में भी प्रवृत्ति-संयोग का सहयोग है । शुभ कर्म अशुभ कर्म के रूप में और अशुभ कर्म शुभ कर्म के रूप में परिवर्तित होता है-यह परिवर्तन जीव के प्रयत्न से ही होता है । जहाँ कर्म की गति नहीं है वहाँ पर उद्यम की विजयपताका फहराती है । कर्म का (अदृष्ट का ) कार्य जीव को भवचक्र में घुमाने का है, जबकि उद्यम-प्रयत्न- पुरुषार्थ कर्मों के विरुद्ध युद्ध करके और कर्म-सैन्य को ध्वस्त करके आत्मा को मुक्तिधाम पर ले जाता है । कैवल्य को प्रगट करने में कर्म का बल कारण नहीं है, परन्तु कर्मों का क्षय ही कर्मक्षय का साधक प्रयत्न ही एकमात्र मुख्य कारण है । इस प्रकार की उद्यम कीप्रयत्ल की-आत्मबल की असाधारण विशेषताओं को ध्यान में लेने पर कर्म' के महत्त्व की ओर एकान्त पक्षपात रखना अनुपयुक्त है । कर्म ('अदृष्ट' के अर्थ में )कर्म (क्रिया के अर्थ में) पर अवलम्बित है । अत: अच्छी-शुभ-प्रशस्त क्रिया (सत्कर्म) करने में, मनोवाक्काय-व्यापार को शुद्ध अथवा शुभ रखने में दृढ़संकल्पी बने रहना ही कर्मतन्त्र को सुधारने का और उसे विनष्ट करने का उपाय है-ऐसा ज्ञानी सन्तपुरुषों का उपदेश है । केवल कर्मवादी मनुष्य निरुत्साही-निरुद्यमी बनने के कारण सफलता से वंचित रहता है, अपने दारिद्र्य को झाड़ने में असमर्थ बनता है । लक्ष्मी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org