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जैनदर्शन
पर अतिनिघृण अत्याचार किये जाते थे । उनके लिये धर्म के द्वार बन्द कर दिए गए थे । इसके विरुद्ध इस महात्मा ने
उच्चो गुणे कर्मणि यः स उच्चो नीचो गणे कर्मणि यः स नीचः । शूद्रोऽपि चेत् सच्चरितः स उच्चो
द्विजोऽपि चेद् दुश्चरितः स नीचः ॥ ---जो गुण-कर्म में उच्च है वह उच्च है और जो गुण-कर्म में नीच है वह नीच है । तथाकथित शूद्र भी यदि सच्चरित हो तो वह उच्च है और ब्राह्मण यदि दुश्चरित हो तो वह नीच है।
इस प्रकार उद्बोधन करके विचार एवं वर्तन के सुसंस्कार पर ही उच्चत्व की प्रतिष्ठा है ऐसा लोगों को समझाया । केवल वचन से ही न समझाकर दलित एवं अस्पृश्य समझे जाने वाले लोगों के लिये भी अपनी धर्मसंस्था के द्वार उन्होने खोल दिए । जैन-दीक्षा लेकर ऋषि-महर्षि-महात्मा बने हुए ऐसे मनुष्यों के चरित उत्तराध्ययन सूत्र के १२, १३वें अध्यन में आते हैं । उस समय स्त्री का स्थान कितना नीचा था और वैदिक धर्म की तत्कालीन प्रणालिका ने स्त्री का कितना तिरस्कार किया था यह हम उस समय के वैदिक धर्मशास्त्रों पर से जान सकते हैं । ऐसी हालत में अर्हन महावीर ने विश्व के समक्ष स्त्री को पुरुष की समकक्ष उद्घोषित किया और
१. 'अथ हास्य वेदमुपशृण्वतस्त्रपुजतुभ्यां क्षोत्रप्रतिपूरणम्, उदाहरणे जिह्वाच्छेदो, धारणे
शरीरभेदः ।' -गौतमधर्मसूत्र अर्थात्-वेद सुननेवाले शूद्र के कानों में सीसा और लाख भर देना, वह यदि वेद का उच्चारण करे तो जीभ काट डालना और याद कर ले तो उसका शरीर काट डालना। 'न शूद्राय मतिं दद्यान्नोच्छिष्टं न हविष्कृतम् ।। न चास्योपदिशेद् धर्मं न चास्य व्रतमादिशेत् ॥' -वसिष्ठधर्मसूत्र अर्थात्-शूद्र को ज्ञान न देना, यज्ञ का बचा-खुचा न देना, यज्ञ का प्रसाद न देना और उसे धर्म को उपदेश तथा व्रत का आदेश न देना ।
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