________________
षष्ठ खण्ड
४२१
धार्मिक क्षेत्र में पुरूष के समतुल्य रखकर उसे संन्यास-दीक्षा लेने का अधिकार प्रदान किया' ।' श्रमण भगवान् महावीर का धर्मचक्र उस समय व्यापक रूप से क्रान्तिकारक बना था । उन्होनें जिस धर्ममार्ग का प्रकाशन अथवा विकास किया था उसे सच्चे रूप में हम मानवधर्म कह सकते हैं । यह मानवधर्म जगत् के सब प्राणियों के साथ न्याय एवं समदृष्टि रखता है । अतः विश्व का कोई भी मनुष्य अपने स्थिति-संयोगों के अनुसार इसका अनुसरण कर सकता है-~-इसका पालन कर सकता है । यह मार्ग जिन द्वारा प्रकाशित अथवा प्रचलित होने से ही 'जैन धर्म' कहलाता है' । बाकी इसकी वास्तविकता तथा व्यापकता को देखते हुए यह सर्वजनस्पर्शी और सर्वजनहितावह मार्गदर्शक धर्म होने के कारण इसे 'जैनधर्म' कहते हैं ।
विश्वबन्धु महावीर ने नामधारी अथवा ढ़ीलेढाले श्रमण, ब्राह्मण, मुनि, और तापस इन सब को खरी खरी सुनाई है । उत्तराध्यसूत्र के २५वें अध्यन में कहा है कि
न वि मुंडिएण समणो न ओंकारेण बंभणो ।
न मुणी रण्णवासेणं कुसचीरेण न तावसो ॥३०॥ अर्थात्-सिर मुंडाने मात्र से कोई श्रमण नहीं होता, ऊँकार जाप अथवा आलाप मात्र से कोई ब्राह्मण नहीं होता, निर्जन वन में रहने से कोई मुनि नहीं होता और कुश का चीवर अथवा वल्कल धारण करने से कोई तापस नहीं बनता ।
किसी भी मनुष्य के आन्तरिक जीवन का योग्य परिचय प्राप्त किए बिना केवल बाह्य वेष, बाह्य दिखावा, बाह्यक्रिया अथवा बाह्य चेष्टाओं से आकृष्ट होकर उस मनुष्य में इन वेष आदि से सूचित गुण भी अवश्य हैं ऐसा बिना विचारे मान लेने में ठगाए जाने का जो भय है उसके सामने यह
१. महावीर ने दासी बनी हुई राजकुमारी चन्दनबाला को संन्यासिनी बनाकर (सर्वविरति
चारित्र की दीक्षा देकर) इस आर्य महिला से साध्वीसंस्था का प्रारम्भ किया था । २. और 'जिन' किसी व्यक्तिविशेष का नाम नहीं है; परन्तु किसी भी पूर्णद्रष्टा वीतराग
ज्ञानी का नाम है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org