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जैनदर्शन
श्लोक लालबत्ती धरता है । इसके बाद का श्लोक जो इस बारे में विशद प्रकाश डालता है, यह है—
समयाए समणो होइ बंभचेरेण बंभणो । नाणेण य मुणी होइ तवेण होइ तावसो ॥३१॥
अर्थात् — समता से श्रमण होता है, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण होता है, ज्ञान (विवेकज्ञान) से मुनि होता है और तप से (विवेकयुक्त, निष्काम तथा स्वपरहितसाधक तप से) तापस होता है ।
[समता का अर्थ है सब प्राणियों की ओर समानता का भाव रखकर आत्मीयता धारण करना तथा सुख-दुःख, हानि-लाभ, जय-पराजय के प्रसंग उपस्थित होने पर मन की समतुला न खोकर उसे स्थिर रखना । और, ब्रह्मचर्य का अर्थ है पौद्गलिकसुखोपभोग में लुब्ध न होकर और मन का निरोध करके ब्रह्म में (परमात्मा में अथवा परमात्मपद पर पहुँचाने वाले कल्याणमार्ग में) विचरण करना — विहरण करना - रममाण होणा ।]
अनुभव से ज्ञात होता है कि जैनदर्शन आध्यात्मिक दर्शन है । इसके दार्शनिक तत्त्वज्ञान का भी झुकाव सम्पूर्णतया आध्यात्मिक श्रेयश्चर्या की ओर है । इसके विविधविषयक समग्र वाङ्गमय का एकमात्र उद्देश वीतरागता की प्राप्ति के मार्ग पर चढाने का है; क्योंकि इसका स्पष्ट, भारपूर्वक तथा पुनः पुनः यही कहना है कि यथार्थ कल्याण की पूर्णता वीतरागता पर अवलम्बित है । इसकी मुख्य सीख यही है कि—
जिस किसी तरह राग-द्वेष कम हों, नष्ट हों, उसी तरह बरतो ! उसी तरह प्रवृत्ति करो ! उसी तरह आचरण रखो !
१. किं बहुणा ? इह जह-जह रागद्दोसा लहु विलिज्जन्ति । तह तह पयट्टिअव्वं एसा आणा जिणिदाणं ॥ यशोविजयजीकृत अध्यात्ममतपरीक्षा की अन्तिम गाथा । दोसा जेण निरुब्भंति जेण खिज्जंति पुव्वकम्माई । सो सो मोक्खोवाओ रोगावत्थासु समणं व ॥
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- बृहत्कल्प, पृ. ९३६, गा. ३३३१
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