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जैनदर्शन
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पाजित द्रव्य से किए जायँ तो धर्म की पवित्रता सुरक्षित रह सकती है । धर्म की महिमा को बढाने का यही अच्छा और सच्चा मार्ग है । बाह्याडम्बर के लिये धर्म की पवित्रता को खतरे में नहीं डालना चाहिए। नीति से यदि धन इकट्ठा किया जाय और ऐसे न्यायपूत धन का धार्मिक कार्य में उपयोग किया जाय तो उसका प्रभाव समाज और सामान्य जनता पर बहुत अच्छा पड़ेगा ।
अब मूल बात पर आएँ । ऊपर कहा उस तरह परिस्थिति में पोषित और संवर्धित व्यक्तियों में भी एक की बुद्धि और स्मरणशक्ति प्रखर होती है, जबकि दूसरे की मन्द । दोनों के विचार - वर्तन में भी विभिन्नता होती है । साधन, सुविधा और श्रम समान होने पर भी एक विद्या अथवा कला जल्दी सीख लेता है, जबकि दूसरा उसमें पिछड जाता है । समान अभ्यास वाले समान परिस्थिति में बढे हुए मनुष्यों में से एक की वक्तृत्व, कवित्व अथवा संगीत कला जैसी शक्तियाँ खिलती हैं, जबकि दूसरा जन्मभर वंचित ही रहता है, अथवा पहले के विकास की तुलना में बहुत मन्द रह जाता है। छहसात वर्ष का बालक अपनी संगीतकला से सहृदय जनता को मुग्ध करता है, छोटासा बालक गणित में अपनी कुशलता दिखाता है । नाट्यरचना जैसी साक्षरता प्राप्त करता है ! क्या यह सब पूर्वजन्म की संस्कारशक्ति की स्फुरणा के बिना शक्य है ?
ऐसे भी अनेक उदाहरण हमारे सम्मुख उपस्थित हैं जिनमें माता-पिता की अपेक्षा उनके बालक की योग्यता सर्वथा भिन्न प्रकार की होती है । अशिक्षित माता-पिता का पुत्र शिक्षित, विद्वान और महाविद्वान् बनता है I इसका कारण केवल उसके चारों ओर की परिस्थिति में ही विद्यमान नहीं है । यदि ऐसा कहा जाय कि यह परिणाम तो बालक के अद्भुत ज्ञानतंतुओं का है, तो यह प्रश्न होता हे कि बालक का शरीर तो उसके माता-पिता के शुक्रशोणित से बना है, तो फिर उनमें (माता-पिता में) अविद्यमान ज्ञानतन्तु बालक के मस्तिष्क में आए कहाँ से ? कहीं कहीं माता-पिता के जैसी ही ज्ञानशक्ति बालक में भी दिखाई देती है । इस पर भी यह प्रश्न होता है कि ऐसा सुयोग मिला कैसे ? और इसका क्या कारण कि किसी माता-पिता
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