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चतुर्थ खण्ड
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अथवा अत्याचार करके एकत्रित किए हुए धन के बल पर भोगविलास करने वाले को उस तरह भोगविलास करने का नैतिक अथवा धार्मिक दृष्टि से कोई अधिकार प्राप्त होता है । ऐसे लोगों ने प्रायः अपना धन सीधे तौर पर से अथवा परोक्षरूप से गरीब और श्रमिकों के पास से छल - बल द्वारा ठगकर अथवा लूटकर प्राप्त किया होता है । जहाँ ऐसा हो वहाँ कोई भी सुराज्य अथवा जागरुक समाज ऐसी परिस्थिति लम्बे समय तक नहीं निभाह सकता । और यदि निभा भी ले तो प्रथम दोष उस राज्य का और दूसरा दोष उस सोते हुए समाज का है । समाज का अर्थोत्पादन और उसका योग्य विभाजन हो यह राज्य और समाज को देखने का है । कोई भी धर्म, समाज में प्रवर्तित ऐसी अराजकता का अनुमोदन करके उसे टिकाने का प्रयत्न नहीं कर सकता और वैसे धन का धर्मप्रभावना करने की इच्छा से धार्मिक समझे जानेवाले कार्य में उपयोग करने-कराने से उसे न्यायोपार्जित प्रशस्त धन के रूप से प्रतिष्ठा नहीं दे सकता । यदि दे तो वह धर्म अनीति, अनाचरण का पोषक बन जायगा गृहस्थाश्रमी का प्रथम सद्गुण न्याय से धनोपार्जन करने का है । न्याय से कमाना और उसमें से जितना बन सके उतना धार्मिक कार्य में खर्च करना यही प्रशस्त और पुण्य मार्ग है । धार्मिक कार्य में व्यय करने के लिये अथवा धर्म-प्रभावना की इच्छा से वैसे बडे कार्य करने के लिये अच्छे-बुरे किसी भी मार्ग से धन एकत्रित करना अनुचित है, श्रेयस्कर नहीं है । शास्त्रकारों का यह स्पष्ट उपदेश है कि धर्म के लिये धन की इच्छा करना इसकी अपेक्षा तो वैसी इच्छा न करना ही अधिक उत्तम है । कीचड में पैर डालकर फिर धोना इसकी अपेक्षा तो कीचड में पैर न डालना ही अच्छा है । इस पर से यह समझना सुगम है कि धर्मिक कार्य यदि न्यायो
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१. धर्मार्थे यस्य वित्तेहा वरं तस्य निरीहता । प्रक्षालनाद्धि पङ्कस्य दूरादस्पर्शनं वरम् ॥
- महाभारत वनपर्व ३ अध्याय २, श्लोक ४९. इस श्लोक का दूसरा चरण 'तस्यानीहा गरीयसी' ऐसा भी मिलता है । आचार्य हरिभद्र और आचार्य हेमचन्द्र के ग्रन्थों में यह श्लोक श्रद्धेयतापूर्वक उद्धृत किया हुआ दिखाई देता है । जैन साहित्य में यह श्लोक ठीक ठीक प्रचलित है
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