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________________ चतुर्थ खण्ड २९३ की योग्यता अत्यन्त उच्च कक्षा की होती है, जबकि उन्हीं का बालक उनके अनेक प्रयत्नों के बावजूद साधारण बुद्धि का अथवा गँवार ही रह जाता है ? ऐसे अनेक उदाहरण हमें विचार करने के लिये प्रेरित करते हैं । बड़ी सावधानी से चलने वाले मनुष्य के सिर पर ऊपर से अचानक इँट या पत्थर गिरे और उससे गहरी चोट लगे तो ऐसी तकलीफ होने में उस मनुष्य का क्या कुछ गुनाह था ? नहीं । तो फिर अपराध के बिना यह कष्ट क्यों ? एक मनुष्य ने मूर्खतावश शंका से उत्तेजित होकर दूसरे मनुष्य के पेट में छुरा भोंक दिया और इससे वह मर गया तो इसमें उस मरने वाले का कौन सा अपराध था ? उस मरने वाले को यदि वस्तुतः निर्दोष और सज्जन मान लें तो इस प्राणान्तक प्रहार का भोग उसे क्यों बनना पड़ा ? परन्तु यदि पूर्वकर्म के अनुसंधान का विचार किया जाय तो ऐसी बातों का खुलासा हो सकता है । गर्भ से लेकर जन्म तक बालक को जो कष्ट सहने पड़ते हैं वे सब क्या बालक की अपनी करनी के परिणाम हैं, अथवा उसके माता-पिता की करनी के परिणाम हैं ? उन कष्टों को बालक की इस जन्म की करनी का परिणाम नहीं कहा जा सकता; क्योंकि उसने गर्भावस्था में तो अच्छा-बुरा कोई भी कार्य नहीं किया है । और माता-पिता की करनी का परिणाम यदि कहा जाय तो वह भी युक्त नहीं है; क्योंकि माता-पिता अच्छा या बुरा कार्य करें तो उसका परिणाम विना कारण बालक को क्यों भुगतना पड़े ? और बालक जो कुछ सुख - दुःख का अनुभव करता है वह ऐसे ही बिना कारण ही करता है ऐसा तो माना नहीं जा सकता; क्योंकि कारण के बिना कार्य का होना असम्भव है । इन सब उदारहणों पर से मालूम हो सकता है कि इस जन्म में दिखाई देती बहुविध विलक्षणताओं का मूल केवल वर्तमान जीवन में नहीं है; न तो वह सिर्फ माता-पिता के संस्कार का ही परिणाम है और न केवल बाह्य परिस्थिति का ही परिणाम । अतः आत्मा का अस्तित्व गर्भारम्भ के समय से पूर्व भी था ऐसा मानना ही उपयुक्त है । इसी का नाम पूर्वजन्म है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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