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जैनदर्शन
दूसरे को मुख्यरूप से ग्रहण करता है । जैस कि, जीव के स्वरूप का निरूपण करते समय उसके ज्ञानादि गुण गौन होते है और ज्ञानादि गुणों के निरूपण के समय जीव गौण होता है। गण-गणी, क्रिया-क्रियावान, अवयवअवयवी तथा जाति-जातिमान् के बीच के तादात्म्य (अभेद) को यह नय ग्रहण नहीं करता । इन सबके बीच अर्थात् गुण और गुणी आदि के बीच यह तो भेद ही देखता है । इन गुण-गुणी आदि में से एक की मुख्य रूप से तो दूसरे की गौण रूप से कल्पना करने की इस नय की सरणी है ।
(२) संग्रह-सामान्य तत्त्व का अवलम्बन लेकर अनेक वस्तुओं को समुच्च्यरूप से-एक रूप से ग्रहण करना यह संग्रहनय कहलाता है । जड़ एवं चेतनरूप अनेक व्यक्तियों में रहे हुए सतरूप 'सामान्य' तत्त्व के ऊपर दृष्टि रखकर और दूसरे विषयों को लक्ष में न लेते हुए इन सब विविध व्यक्तियों को एकरूप समझकर ऐसा कहना कि सत् रूप विश्व एक है' [क्योंकि सत्तारहित एक भी वस्तु नहीं है] संग्रहनय की दृष्टि है । 'एक आत्मा है' इस प्रकार के कथन से वस्तुतः सब का एक आत्मा सिद्ध नहीं होता । प्रत्येक शरीर में आत्मा भिन्न-भिन्न है। फिर भी सब आत्माओ में रहे हुए सामान्य चैतन्य-तत्त्व का आश्रय लेकर 'एक आत्मा हैंऐसा कथन होता है। यह संग्रहनय की दृष्टि है । इसका लौकिक उदाहरण भी लिया जा सकता है कि कपड़े के विविध प्रकार और व्यक्तियों को लक्ष में न रखकर और केवल कपड़ेपने के सामान्य तत्त्व को दृष्टि-समक्ष रखकर विचार करना कि यहाँ एकमात्र वस्त्र ही है यह संग्रहनय का उदाहरण है।
संग्रहनय सामान्य तत्त्व का अवलम्बन लेता है, अत: सामान्य जितना विशाल होगा उतना ही संग्रहनय भी विशाल होगा और सामान्य जितना अल्प उतना ही संग्रहनय भी अल्प होगा । परन्तु जो विचार सामान्य तत्त्व का आश्रय लेकर विविध वस्तुओं के एकीकरण की ओर प्रवृत्त होते हैं वे सब संग्रहनय की श्रेणी में रखे जा सकते हैं ।
१. 'व्यवस्थातो नाना' यह वैशेषिकदर्शन के तृतीय अध्याय का उपान्त्य सूत्र अनेक
जीववाद का सिद्धान्त उपस्थित करता है । २. ठाणांग का दूसरा सूत्र ।
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