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जैनदर्शन
वस्तु के अनेक धर्म हैं, अतः वह अनेकान्त अर्थात् अनेकधर्मात्मक कहलाती है । किसी मकान की चारों दिशाओं से यदि उसके चार फोटो लिये जायँ तो वे सब एक-जैसे नहीं होंगे, फिर भी वे एक ही मकान के हैं और एक ही मकान के कहलाएँगे । इसी प्रकार वस्तु भी अनेक दृष्टिओं से देखने पर अनेक प्रकार की मालूम होती है । यही कारण है कि वाक्यप्रयोग भी नानाविध बनते हैं । जब हम एक मनुष्य को किसी दूसरे समय उन्नत स्थित में आया हुआ देखते हैं तब हम ऐसा कहते हैं कि 'यह अब वह नहीं रहा । बड़ा कलाकार अथवा विद्वान् हो गया है।' इस प्रकार भिन्न-भिन्न बातों को (अवस्था अथवा धर्म को उनकी विद्यमानता अथवा अविद्यमानता को) लक्ष में रखकर भिन्न भिन्न वाक्यप्रयोग किए जाते हैं और उनमें किसी को विरोध प्रतीत नहीं होता । आम का फल कद्दू की अपेक्षा छोटा और बेर की अपेक्षा बडा होता है। इस तरह एक ही वस्तु एक साथ ही छेटी और बड़ी भिन्न-भिन्न अपेक्षादृष्टि से-कही जाती है और इसमें किसी को भी किसी प्रकार की बाधा अथवा विरोध मालूम नहीं होता । ठीक यही बात अनेकान्त के बारे में भी है कि एक ही वस्तु को अपेक्षाभेद से 'है'
और 'नहीं' है, कहा जा सकता है। किन धर्मों में परस्पर विरोध है यह हम पहले से नहीं जान सकते । परन्तु जब हमें यह बात मालूम होती है कि अमुक दो धर्म एक समय में एक स्थान पर नहीं रह सकते तभी उनका परम्पर विरोध जानने में और मानने में आता है । परन्तु यदि दो धर्म एक वस्तु में साथ रह सकते हों तो फिर उनका विरोध कैसा? स्वरूप की अथवा स्व-द्रव्यादिचतुष्टय की अपेक्षा से 'अस्ति' और इसी अपेक्षा से 'नास्ति' यदि माना जाय तो निःसन्देह विरोध की बात होगी । परन्तु स्वरूप से अथवा स्वद्रव्यादिचतुष्टय की अपेक्षा से 'अस्ति' और पर-रूप से अथवा परद्रव्यादिचतुष्टय की अपेक्षा से 'नास्ति' ऐसा यदि माना जाय तो फिर विरोध को अवकाश ही कहाँ है ? इस तरह 'अस्ति', 'नास्ति' दोनों को एक वस्तु में अपेक्षाभेद से मानने में विरोध है ही नहीं । और विरोध न होने से ही अनेकान्त के ऊपर किए गए विरोधमूलक आक्षेपों के लिये कोई अवकाश ही नहीं रहता।
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