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________________ षष्ठ खण्ड जैनदर्शन की असाम्प्रदायिकता और उदारता जैन धर्म के सिद्धान्तों को स्फुट करने के लिये प्राचीन महान् जैन आचार्यों ने विशाल ग्रन्थराशि का निर्माण किया है । इसमें उन महापुरुषों ने मध्यस्थभाव से तत्त्व का निरूपण करते समय लोककल्याण की ओर मुख्य दृष्टि रखी है । मूल आगमों में तो समभाव के निर्मल एवं विशाल झरने बहते हुए हम देख सकते हैं, परन्तु पश्चात्कालीन समभावी महान् आचार्यों के रचे तक हुए महान् ग्रन्थ भी कम महत्त्व के नहीं हैं । इसके निदर्शन रूप से आचार्य हरिभद्र का 'शास्त्रवार्तासमुच्च्य' ग्रन्थ ले सकते हैं । इस तत्त्वपूर्ण सुन्दर ग्रन्थ में महान् ग्रन्थाकार इन साधुपुरुष के उमदा समभाव एवं वात्सल्य का जो दर्शन होता है उसका विशद आकलन करने का यह उपयुक्त स्थान नहीं है, फिर भी नमूने के तौर पर कुछ देख लें । उक्त ग्रन्थ के तृतीय स्तबक में जैनदर्शनसम्मत 'ईश्वर जगत्कर्ता नहीं है' इस सिद्धान्त का युक्तिपुरस्सर समर्थन करने के बाद यह समभावसाधक और गुणपूजक आचार्य लिखते हैं कि Jain Education International :-- ततश्चेश्वरकतृत्ववादोऽयं युज्यते परम् । सम्यग्न्यायाविरोधेन यथाऽऽहुः शुद्धबुद्धयः ॥ १० ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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