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________________ षष्ठ खण्ड ४०७ ईश्वरः परमात्मैव तदुक्तव्रतसेवनात् । यतो मुक्तिस्ततस्तस्याः कर्ता स्याद् गुण भावतः ॥११॥ 'तदनासेवनादेव यत् संसारोऽपि तत्त्वतः । तेन तस्याऽपि कर्तृत्वं कल्प्यमानं न दुष्यति ॥१२॥ अर्थात्-ईश्वरकर्तृत्व का मत इस प्रकार की युक्ति से घट भी सकते हैं कि राग-द्वेष-मोहरहित पूर्ण वीतराग, पूर्णज्ञानी परमात्मा ही ईश्वर है और उसके कहे हुए कल्याण मार्ग का आराधन करने से मुक्ति प्राप्त होती है, अतः मुक्ति को देनेवाला ईश्वर है ऐसा उपचार से कहा जा सकता है । और उस परमात्मा द्वारा निदिष्ट सद्धर्म-मार्ग का आराधन न करने से जो भवभ्रमण करना पड़ता है वह भी ईश्वर का उपदेश न मानने का परिणाम है । १. जिसके परामर्श से हमें लाभ मिले उसे हमारे लाभरूपी उपकार का कर्ता हम कह सकते हैं, परन्तु जिसके परामर्शानुसार न चलने से अर्थात् उससे विरुद्ध चलने से यदि नुकसान हो तो उसे हम उस नुकसान का कर्ता नहीं कहते और न कह सकते हैं । व्यवहार में भी ऐसा नहीं कहा जाता । इसी प्रकार परमात्मा द्वारा निर्दिष्ट सन्मार्ग पर चलने से मुक्ति का लाभ मिलता है, अत: इस लाभरूपी उपकार के कर्ता रूप से अथवा मुक्ति के दाता रूप से परमात्मा को माना जा सकता है। [अलबत्ता ऐसा मानना वस्तुतः औपचारिक व्यवहार है, फिर भी यह युक्तियुक्त एवं रम्य है। परन्तु उसके (परमात्मा के ) बताए हुए मार्ग पर न चलकर उससे विरुद्ध चलने से यदि भवभ्रमण का कष्ट उठाना पड़े तो उसका कर्ता उसे (परमात्मा को) मानना यह औपचारिक रूप से भी अघटित है। औपचारिक रूप से भी ऐसा वाणीव्यवहार कुछ अँचता नहीं । इसीलिये उपाध्याय श्री यशोविजयजी को इस बारे में उपर्युक्त १२वें श्लोक की टीका में कहना पड़ा है कि" 'अङ्गुल्यग्रे करिशतम्' इत्यादिवद् यथाकथञ्चिद् उपचारेण व्यवहारनिर्वाहात् ।" अर्थात्-'अंगुली के अग्र भाग पर सौ हाथी हैं। ऐसे लौकिक कथन के जैसे इस कथन को जिस किसी तरह औपचारिक रूप से निबाह लेना । जैनदृष्टि के अनुसार भवस्थ और भवातीत इस प्रकार दो श्रेणी के परमात्मा हैं । भवस्थ परमात्मा मन-वाणी-शरीर के धारक होने से चलना, फिरना, बोलना आदि प्रवृत्तियाँ करते हैं । वे कल्याणमार्ग के–मुक्तिमार्ग के योजक, उपदेशक और प्रचारक हैं तथा मुमुक्षु संघ के संगठनकर्ता है । भवातीत (सिद्ध) परमात्मा सम्पूर्णरूप से विदेह होने के कारण अपनी ज्ञान-ज्योति में ही रममाण रहते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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