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________________ जैनदर्शन 'ईश्वर कर्ता' ऐसे वाक्य में कुछ लोगों का आदरभाव है, अतः उन्हें लक्ष में रखकर इस प्रकार की ईश्वरकर्तृत्व की देशना दी गई है, ऐसा आचार्य महाराज नीचे के श्लोक से कहते हैं— ४०८ कर्ताऽयमिति तद्वाक्ये यतः केषाञ्चिदादरः । अतस्तदानुगुण्येन तस्य कर्तृत्वदेशना ॥ १३ ॥ अब दूसरी तरह, उपचार के बिना ही ईश्वर को कर्ता बतलाते हैं- परमैश्वर्ययुक्तत्वान्मत आत्मैव वेश्वरः । स च कर्तेति निर्दोषः कर्तृवादो व्यवस्थितः ॥ १४ ॥ अर्थात् — अथवा आत्मा ही ईश्वर है — ऐसा माना गया है, क्योंकि प्रत्येक आत्मा (जीव) अपने सच्चे स्वरूप में परमैश्वर्ययुक्त है और आत्मा तो स्पष्ट रूप से कर्ता है ही । इस तरह ईश्वरकर्तृत्ववाद व्यवस्थित हो सकता है । ऊपर्युक्त पाँच श्लोकों के बाद इसी बात के अनुसन्धान में उपसंहार करते हुए आचार्य महाराज कहते हैं कि शास्त्रकारा महात्मानः प्रायो वीतस्पृहा भवे । सत्त्वार्थसम्प्रवृत्ताश्च कथं तेऽयुक्तभाषिणः ? ॥१५॥ अभिप्रायस्ततस्तेषां सम्यग् मृग्यो हितैषिणा । न्यायशास्त्राविरोधेन यथाऽऽह मनुरप्यदः ॥१६॥ अर्थात्—शास्त्र बनानेवाले ऋषि- महात्मा प्रायः निःस्पृह और लोकोपकारक वृत्तिवाले होते हैं, अतः वे अयुक्त भाषण कैसे कर सकते हैं ? इसलिये उनका अभिप्राय न्यायसंगत हो इस तरह खोजना चाहिए । इसके बाद के स्तबक में कपिल के प्रकृतिवाद की समीक्षा आती है । सांख्यमत के विद्वानों ने प्रकृतिवाद की जो विवेचना की है उसमें आनेवाले दोषों का उद्घाटन करके और प्रकृतिवाद का तात्पर्य बतलाकर अन्त में आचार्य महाराज कहते हैं कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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